12 अप्रैल 2010

भाषा चिंतन

तांक से आगे..

अमितेश्‍वर कुमार पाण्‍डेय

पी-एच.डी. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग


संरचनावादी भाषाविज्ञान का विधिवत प्रारंभ फर्दिनांद द सस्युर की पुस्तक Course in General Linguistics(1916) से माना जाता है। आगे चलकर संरचनावादी भाषाविज्ञान की अलग-अलग देशों में अलग-अलग चिंतन सारणी विकसित हुई जिनमें अमेरिकी संरचनावादी भाषाविज्ञान या चित्रणवाद (Discriptivism), प्राग भाषावैज्ञानिक स्कूल या पूर्वी यूरोपीय संरचनावाद तथा कोपेनहेगन स्कूल मुख्य रूप से उभरे। इनमें भी (1930) कोपेनहेगन स्कूल संरचनावाद के केन्द्र में उभरा। 1960 के दशक में इनमें भी एक नई प्रवृत्ति निर्मितिवादका जन्म हुआ।

निर्मितिवाद सैद्धांतिक वस्तुओं की आवश्यकता के सिद्धांत पर आधारित थी। शुरू-शुरू में इस सिद्धांत का सूत्रीकरण गणितीय तर्कशास्त्र के फ्रेमवर्क के भीतर हुआ, जिसे बाद में भाषाविज्ञान में विस्तार किया गया। इस सिद्धांत में दो मुख्य भाग हैं- 1. किसी वस्तु को सिद्धांत की वस्तु तभी माना जाता है, जब उसकी निर्मिति संभव हो; और 2. वस्तुओं के अस्तित्व या उनके संज्ञान की संभावना की बात तभी की जा सकती है जब उनकी सैद्धान्तिक निर्मिति या अनुरूपण संभव हो। निर्मितिवाद पद्धति का आधार कलन-गणित पर आधारित है जिसपर सबसे पहले अफलातून और पाणिनी तथा आगे चलकर स्पिनोजा जैसे दार्शनिक विचार कर चुके थे। कलन-गणित से निगमित हु अवधारणाओं ने निर्मितिवाद क एक विशेष प्रकार को जन्म दिया जो प्रजनक व्याकरणों और गणितीय भाषाविज्ञान के सिद्धांत का आधार बना।

प्रजनक व्याकरण के सिद्धांत और गणितीय तर्कशास्त्र की एक शाखा के रूप में औपचारिक भाषा के सिद्धांत की आधारशिला नॉम चॉम्स्की ने रखी थी। प्रजनक व्याकरण ने संरचनावादी भाषाविज्ञान की कई कमियों को दूर करने का दावा किया, लेकिन विशिष्ट भाषा-वैज्ञानिक आंकड़ों पर इसके सिद्धांत को लागू करने के बाद पाया गया कि ये सिद्धांत अतिसीमित दायरे में ही प्रभावी एवं उपयोगी है। चॉम्स्की का एक विवादास्पद विचार यह था कि किसी प्राकृतिक भाषा के वाक्य-विन्यास तथा अर्थविज्ञान के विविध पहलूओं के निरूपण के लिए प्रजनक व्याकरण का औपचारिक उपकरण पर्याप्त है। इस आधार पर कि दुनिया की सभी भाषाओं की बुनियादी अंतर्भूत संरचनाएं समान होती हैं, चॉम्स्की ने मस्तिष्क के अध्ययन के साधन के रूप में भाषाविज्ञान के इस्तेमाल की संभावनाओं की ओर भी इशारा किया। चॉम्स्की के इन भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों की नवप्रत्यक्षवादी और औपचारिक तर्कवादी प्रवृति की सीमाएं भी आज स्पष्ट हो चुकी हैं। अबतक आए तमाम भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के विविधरूपी आलोचनाओं ने भाषाविज्ञान में कई नई प्रवृतियों को भी जन्म दे दिया, जैसे- नवभाषाविज्ञान, क्षेत्रीय भाषाविज्ञान ), लेकिन ये आमभाषाविज्ञान के सैद्धांतिक फ्रेमवर्क के रूप में किसी व्यापक सिद्धांत को प्रतिपादित करने योग्य नहीं थीं। इसका दार्शनिक आधार कमजोर और प्रयोग सीमित थे।

इस उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर भाषा-विज्ञान के ठोस मुकाम पर असंतोष जाहिर करते हुए वोलोशिनोव मार्क्सवाद और समकालीन भाषा-विज्ञान के संबंधों के आधार पर मार्क्सवादी भाषाविज्ञान’ की बात करते हैं, यह कहते हुए कि मार्क्सवाद मानव-सभ्यता के भौतिक-आत्मिक विकास का इतिहास प्रस्तुत करते हुए मानव-भाषाओं की व्याख्या के प्रति एक सुनिश्चित अप्रोच’ प्रस्तुत करता है और एक सुनिश्चित पद्धति लागू करते हुए कुछ सुनिश्चित स्थापनाएं प्रस्तुत करता है।

भाषा के संदर्भ में मार्क्सवादी सिद्धांत का आधार यह था कि भाषा का चरित्र सामाजिक है और यह मानव की सामाजिक श्रम-प्रक्रियाओं और सामाजीकरण की प्रक्रियाओं के सतत् विकास के क्रम में उन्नत से उन्नतर अवस्थाओं में विकसित होती गई है (फ्रेडरिक एंगेल्स)। भाषा संज्ञान का प्रत्यक्ष यथार्थ है जो सामाजिक संसर्ग के दौरान अस्तित्व में आई (मार्क्स-एंगेल्स)। लेनिन के परावर्तन-सिद्धांत के अनुसार भी वस्तुगत यथार्थ का परावर्तन मानव चेतना के साथ ही, भाषा-रूपों की अंतर्वस्तु के धरातल पर भी होता है।

मार्क्सवादी भाषा-दर्शन संरचनावादियों की इस एक बुनियादी स्थापना को स्वीकार करता है कि भाषा संकेतों की एक निश्चित प्रणाली, अपने आंतरिक संगठन समेत एक संरचना’ होती है, जिसके बाहर भाषा के संकेत और अर्थ को नहीं समझा सकता। लेकिन तुलनात्मक-ऎतिहासिक भाषाविज्ञान और संरचनावादी भाषाविज्ञान के पूरे काल के दौरान, प्रत्यक्षवाद, रूपवाद और नवप्रत्यक्षवाद द्वारा विभिन्न रूपों में भाषा के संकेत-वैज्ञानिक और अर्थ-वैज्ञानिक अध्ययनों का जो निरपेक्षीकरण किया जाता रहा और दार्शनिक अध्ययन या ज्ञान-मीमांसा की सारी समस्याओं को भाषा के तार्किक विश्लेषण तक सीमित कर देने के जो प्रयास होते रहे, मार्क्सवाद ने उनका विरोध किया। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में नवप्रत्यक्षवाद ने दर्शन की समस्याओं को मिथ्या समस्या घोषित करते हुए भाषा और विचार व्यक्त करने की अन्य सभी संकेत-प्रणालियों के भाषाई-अर्थवैज्ञानिक विश्लेषण को प्रतिष्ठापित करने की कोशिश की और विज्ञान के रूप में दर्शन को सारतः विघटित करने का प्रयास किया जिसका मार्क्सवादी भाषावैज्ञानिकों ने तर्कपूर्ण विरोध किया और अपने तर्क से भाषाविज्ञान के दार्शनिक बातों को उभारा ।

मार्क्सवादी भाषाविज्ञान के उद्भव और विकास के दौरान इसे अनेक वादों (रूपवाद, नवप्रत्यक्षवाद आदि) से संघर्ष करना पड़ा तो दूसरी ओर इसके भीतर भी विचलन पैदा होते रहे। भाषाविज्ञान के विस्तार और सूक्ष्मता के कई ऎसे प्रश्न आज भी खड़े हैं जिनसे मार्क्सवाद जझ रहा है और भौतिक-आत्मिक जीवन का विकास ऎसे बहुत सारे प्रश्न भी खड़ा करता जा रहा है जिनका उत्तर ढूंढ़ते हुए मार्क्सवादी भाषाविज्ञान को आगे विकसित होना है। आधुनिक सैद्धांतिक भाषाविज्ञान व्याकरणिक संरचनाओं के जिन प्रश्नों से जुझ रहा है, वह मार्क्सवादी भाषाविज्ञान के सामने भी मौजूद है।

सन्दर्भ : मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन, जे.वी. वोलोशिनोव. द्वारा रचित, अनुवाद- विश्‍वनाथ मिश्र, राजकमल प्रकाशन, 2002


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें