30 मार्च 2010

इस अंक के सदस्य

सम्पादक - गुंजन शर्मा
संपादन मंडल - पुनीत भारती, धनजी प्रसाद
शब्द-संयोजन - शिल्पा, सौरभ
वेब-संयोजक - अमितेश्वर

संपादक के की-बोर्ड से ……..

संपूर्ण जीवजगत में मनुष्य एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसकी अपनी संस्कृति और सभ्यता है। यदि हम ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से देखें तो आज जो भी है उसे मनुष्य ने अर्जित या विकसित किया है। अब यदि इस बात पर विचार किया जाए कि इसका कारण क्या है? तो जो सबसे मूल बात उभरकर आती है वह यह है कि ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह स्वयं विचार करता है और एक दुसरे से विचारों का आदान-प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त वह अपने आस-पास की हर वस्तु के संदर्भ में जानने का प्रयास करता है और जो कुछ जान पाता है उसका ज्ञान के रूप में संचय और प्रसार करता है।‘ इन सभी के मूल में जो व्यवस्था कार्य करती है वह 'भाषा’ है। इसके अतिरिक्त भाषा आधारित अन्य माध्यमों जैसे दूरदर्शन, दूरध्वनि, दूरसंचार-माध्यम, संगणक, पत्रिकाएँ, पुस्तकें भित्ति पत्रिकाएँ आदि से ज्ञान और विचारों का आमोद-प्रमोद तथा वर्धन होता है।
भाषा आधारित इन प्रयासों की दौड़ में हमारा भी एक प्रयास है जो ‘प्रयास’ मासिक भित्ति पत्रिका रुप मे कार्य कर रहा है। इसका भी एक ही लक्ष्य है कि ज्ञान वर्धन करना तथा ज्ञान का लोकार्पण करना। भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग की ‘प्रयास’ पत्रिका की शुरुवात 9 अप्रैल 2009 को हुई थी। उसका 9 अप्रैल 2010 को एक वर्ष पूर्ण हो जायेगा। यह इसकी उपलब्धि ही मानी जायेगी। प्रयास पत्रिका को सफल बनाने में भाषा विद्यापीठ के समस्त शिक्षको, विद्यार्थीयों तथा अन्य विभागीय विद्यार्थींयो का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिन्होंने अपने आलेखों द्वारा प्रयास भित्त पत्रिका को सुसज्जित किया।
गुंजन

महर्षि पतंजलि

अनामिका कुमारी
एम।ए.हि.(भाषा-प्रौद्योगिकी)
महर्षि पतंजलि के जन्म और उनके कार्य-व्यापार को लेकर विद्वानों में अनेक मतभेद प्रचलित हैँ। एक औरत के अंजलि में गिरने (पत्) से उनका नाम पतंजलि हुआ था। किंवदंतियों के अनुसार उनके पिता अंगीरा हिमालय के और माता गोणिका कश्मीर के निवासी थे। महर्षि पतंजलि का जन्म 250 ईसा पूर्व माना जाता है परंतु इनके जन्म को लेकर अनेक विवाद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इनका जन्म चौथी शताब्दी ईसा पूर्व और अन्य के अनुसार छठी शताब्दी ईसा पूर्व, प्रसिध्द कृति योग-सूत्र की प्रस्तुति चौथे से दूसरे शतक ईसा पूर्व, के बीच मानी जाती है। इस आधार पर योग्य तिथि 250 ईसा पूर्व ही माना गया।
पतंजलि के जन्म और उनके माता-पिता के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। एक किंवदंति के अनुसार पतंजलि के पिता अंगीरा इस सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के दस पुत्रों में से एक थे और शिव की पत्नी उनकी माता थीं। इसप्रकार पतंजलि ब्रह्मा के पौत्र; पर साथ में वह बुद्धि, वाग्मिता तथा त्याग में सर्वश्रेष्ठ देवता बृह्स्पति के भाई भी थे।
एक अन्य किंवदंति के अनुसार पतंजलि,स्वंय भगवान विष्णु के अवतार थे ; जो आदिशेष नामक सर्प के रूप में है तथा भगवान विष्णु के आसन के रूप में प्रसिध्द है (वास्तव में आदिशेष सर्प भगवान विष्णु के अनेक अवतारों में एक है।) एक दिन जब विष्णु, भगवान शिव के नृत्य से आनंद विभोर हो रहे थे उसी समय उनके शरीर में एक प्रकार का कंपन हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप आदिशेष के ऊपर भार बढ़ने लगा; परिणामत: उसे कुछ असुविधाओं का अनुभव हुआ। नृत्य समाप्ति के उपरांत भार कम होने पर उसने इसका कारण पूछने उसे उक्त घटना की जानकारी हुई। ज्ञात जानकारी के बाद आदिशेष ने भी अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने के उद्देश्य से नृत्य सीखने की इच्छा व्यक्त की, यह सुनकर य भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर आदिशेष को वरदान दिया कि भगवान शिव के आशिर्वाद से वह एक दिन मानव-अवतार के रूप में जन्म लेकर उत्तम नर्तक के रूप में प्रसिध्द होगा। इस अवतार की प्राप्ति हेतु वह अपनी भावी माता के विषय में मनन करने लगा कि उसकी योग्य माता कौन होगी? उसी समय गोणिका नामक एक सदाचारी और सदगुणी स्त्री जो पूर्णत: योग के प्रति समर्पित थी और इसके द्वारा प्राप्त उच्च तथा योग्य गुणों के हेतु एक योग्य उत्तराधिकारी के रूप में एक पुत्र की कामना कर रही थी ताकि आने वाले समय में भी इस ज्ञान का प्रसार हो सके।परंतु इस पृथ्वी पर वह इतना योग्य पात्र पाने में वह असक्षम थी। इस हेतु उसने प्रकाश के देवता सूर्य के समक्ष साष्टांग दंडवत करते हुए अपनी ओर से अपनी अंजुली से सूर्य को जल अपर्ण करते हुए उनसे अपने योग्य पुत्र की अनुनय-विनय करने लगी और ध्यान में मग्न हो गई। यह एक साधारण पर निष्ठापूर्वक किया हुआ अपर्ण था। भगवान विष्णु को धारण करने वाले आदिशेष को अपनी माता प्राप्त हो गई थी,जिसकी उसने कामना की थी। तत्क्षण गोणिका ने जल अपर्ण करते हुए अंजुलि में रेंगते हुए एक नन्हे प्राणी को पाया; वह तब और भी आर्श्चयचकित थी, जब वह नन्हा प्राणी मनुष्य का रूप धारण किया। जो भगवान शिव से प्राप्त वरदान के कारण हुआ था। इस प्रकार गोणिका को सूर्य और शिव के आशिर्वाद से योग्य पुत्र और उत्तराधिकारी की इच्छा पूर्ण हुई। इन्होंने बीस वर्ष की उम्र में लोलुपा नामक स्त्री से ब्याह रचाया। उनके पुत्र नागपुत्र थे।
योग गुरू पतंजलि ने योग की शिक्षा अपनी गुरू और माता गोणिका से तथा उसके परम् गुरू हिरण्यग्राभा से प्राप्त किया। उन्होंने सांख्य, वेद, उपनिषद्, कश्मीर शैव, ब्रह्मण धर्म, जैन धर्म और बौध्द धर्मकी भी शिक्षा प्राप्त की। पतंजलि महासर्प अनंत के अवतार थे , अर्थात जो कभी समाप्त न हो।
पतंजलि एक महान नर्तक थे, वे भारतीय नर्तकों द्वारा उनके संरक्षक के रूप में पूजनीय हैं। संदेहास्पद स्थिति यहाँ उत्पन्न होती है कि क्या नर्तक पतंजलि वही पतंजलि हैं जिन्होंने प्रसिध्द योग -सूत्र की रचना की थी? योग -सूत्र के उपरांत उनकी प्रसिध्द रचना थी महान संस्कृत व्याकरण “अष्टाध्यायी” को आधार बनाकर उसके ऊपर टिप्पणी करना उनसे संबंधित साक्ष्यों को और अधिक विवाद के घेरे में डालती है। संस्कृत व्याकरण्ा अष्टाध्यायी को आधार बनाकर पतंजलि ने संस्कृत व्याकरण “महाभाष्य” (Great Commentary) प्रस्तुत की। आयुर्वेदिक औषधियों के ऊपर भी इनकी अनेक रचनाएँ उपलब्ध थीं परंतु इसे विद्वानों द्वारा पूर्णत: स्वीकृत और स्थापित नहीं किया गया । इसी प्रकार यह भी विवाद का विषय रहा है कि क्या संस्कृत व्याकरण महाभाष्य के रचयिता वही पतंजलि हैं जिन्होंने योग -सूत्र को स्थापित किया था, अथवा कोई अन्य पतंजलि है? यहाँ योग -सूत्र और महाभाष्य के दर्शन में एक विरोध की व्याप्ति है।
अत: ऐसा माना जाता है कि अलग-अलग पतंजलि एक प्रसिध्द पहचान को प्राप्त करने हेतु अपने नाम और कार्य को इससे जोड़ते चले गए, जो किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के संघर्ष के संकलन से प्राप्त किया गया था।
योग -सूत्र का रचना- काल संभवत: 200 ईसा पूर्व था। पतंजलि अपने कार्य के कारण योग के जनक के रूप में प्रसिध्द हैं। योग -सूत्र, योग का प्रबंध है; जिसका निमार्ण सांख्य के अनुशासन और हिंदू धर्मग्रंथ भगवत् गीता पर किया गया है। योग वह विज्ञान है जो ध्यान को एकत्र (केन्द्रित) करता है। यह पुराण, वेद तथा उपनिषद् में भी व्याख्यायित है। निश्चय ही यह आज भी यह एक महान कार्य है जो हिंदू धर्मग्रंथ में जीवित है; योग व्यवस्था के आधार पर जिसे राज योग के नाम से जाना जाता है। पतंतलि का योग हिंदुओं के छ: दर्शन में एक है, पूर्व संदर्भ के रूप में जो संदर्भ प्राप्त है , उसमे प्रसिध्द योग अष्टांग योग का विवरण दिया गया है, उसके आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि।
पतंजलि का महाभाष्य (Great Commentry) ,पाणिनि के तीन प्रसिध्द संस्कृत व्याकरणों में से एक बहुचर्चित व्याकरण अष्टाध्यायी पर आधारित संस्कृत व्याकरण है, इसके सहयोग से वैयाकरण पतंजलि ने भारतीय भाषाविज्ञान को एक नया रूप प्रदान किया। उन्होंने जिस व्यवस्था की स्थापना की उसमे अधिक विस्तृत में शिक्षा (ध्वनिविज्ञान, जिसमें उच्चारण के ढंग , बलाघात भी संकलित है।) और व्याकरण (रूपविज्ञान) को समझाया गया है। वाक्यविज्ञान पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है परंतु निरूक्त (व्युत्पतिविज्ञान ,Etymology) पर विस्तृत चर्चा की गयी हैऔर यह उत्पतिशास्त्र प्राकृतिक रूप से शब्दार्थ की व्याख्या करता है। विद्वानों के अनुसार उनका कार्य पाणिनि का प्रतिवाद था, जिसके सूत्रों को अर्थपूर्ण रूप से विस्तार प्रदान किया गया है। उन्होंने कात्यायन पर भी आक्रमण किया जो किंचिंत ही कठोरपूर्ण था,परंतु पतंजलि का मुख्य योगदान उनके द्वारा व्याकरण के सिध्दांतों को संशोधित करते हुए उन्हें दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित करने में है। पतंजलि अपने योग प्रबंध में विभिन्न विचारों का प्रतिवाद करते हैं जो कि संख्य अथवा योग के मुख्यधारा में नहीं है। कुशल जीवनी लेखक, विशेषज्ञ, विद्वान कोफी बुसिया ( Kofi Busia ) के अनुसार वे स्वीकार करते थे कि सम्मान या अपने बारे में निर्मित धारणा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, सूक्ष्म शरीर ( लिंग शरीर ) स्थाई रूप से इसका ध्यान नहीं रखता। वे आगे कहते हैं कि इसके द्वारा बाह्य तत्व पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखा जा सकता है।यह पारंपरिक सांख्य और योग के अनुसार नहीं जुड़ा है।
स्पष्टत: पतंजलि वास्तव में एक वास्तविक चिंतक और विचारक थे। उन्हें योग का सच्चा ज्ञान था न कि वे सिर्फ उसके संकलनकर्ता मात्र थे। उन्होंने ना तो कभी किसी अन्य के द्वारा कहे हुए कथन को कहा और न ही किसी दूसरे के कथन को स्पष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने किसी दूसरे का खंडन भी नहीं किया । विश्वसनीयता हेतु उनकी प्रतिभा योग दर्शन के तर्क में अनेक पंक्तियों को समाहित करती है। इसका संदर्भ वेद, उपनिषद् के कुछ काल खंडो में प्राप्त होता है। उन्होंने धूमिल और अस्पष्ट तत्व को स्पष्ट किया और जो निराकार था उसे यर्थाथ बनाया। बहुप्रसिध्द योग संरक्षक बी. के. एस. लिएनगर ¼ B.K.S. Lyegar)का मानना है कि इन्हीं तत्वों से वर्तमान शिक्षकों और अभ्यासकर्ताओं को आज भी प्ररेणा मिलती है।
कुछ अनुवादकों के अनुसार वे एक शुष्क प्रयोगिक, विचारार्थक प्रस्तुतकर्ता है परंतु कुछ अन्य विचारकों के अनुसार वह एक सहानुभूतिशील, मानवीय गुणों से युक्त, विनोदपूर्ण साथी तथा आत्मिक निर्देशक हैं।
वास्तव में वे और उनके योग के व्यवहारिक सारांश तत्व सम्मानीय और महान थे। वे योग विज्ञान में किसी व्यक्ति विशेष के ध्यान को केन्द्रित करने वाला तत्व (योग) के परिचायक अथवा महान सूत्रधार थे।

संदर्भ :
:Quotes – of – wisdom .euA Patanjali- Biography of Patanjali on Quotes of Wisdom

भाषा और समाज

अविचल गौतम
एम।फिल।(भाषा प्रौद्योगिकी)
मेरी दृष्टि से भाषा मात्र मनुष्य के मनुष्य होने की पहचान और शर्त है। भाषा के बिना मनुष्य नहीं होता, पशु से मनुष्य के विकास में भाषा ही वह सीढ़ी है जिस को पार करके वह मनुष्यत्व प्राप्त करता है। अवधारणा करने की शक्ति और उसके साथ-साथ यह प्रश्न पूछने की शक्ति कि मैं कौन हूँ या कि मैं क्या हूँ या मैं क्यों हूँ। यही मनुष्यत्व की पहचान है,और यह शक्ति तब से प्रारम्भ होती है जब से जीव को भाषा मिलती है। भाषा मिलने के बाद यह मनुष्य रूपी जीव उसी प्रकार के सभी पशु रूपी जीवों से अलग हो जाता है।
भाषा के बिना समाज में अपनी अस्मिता की पहचान नहीं हो सकती। अत: सब से पहले भाषा अपने-आप को पहचानने का साधन है। अगर किसी समाज को उसकी भाषा से काट दिया जाये तो हम उसकी अस्मिता को खंडित कर देते हैं। हिंदी के प्रति मेरा जो लगाव है, उसकी बुनियाद में केवल अपने मनुष्य होने को नहीं बल्कि अपने पहचाने जाने की पहली और मूल भाषा मानता हूँ। हिंदी के बिना मैं, मैं नहीं रहता।
भाषा मूल्यों की सृष्टि करना संभव बनाती है। मनुष्य की जिजीविषा ही अंतिम और स्वयंसिध्द तर्क होता है, जीने के लिए। मनुष्य भाषा के माध्यम से ऐसे मूल्यों की सृष्टि करता है, जिनके लिए वह जीता है।
भाषा के द्वारा हम यथार्थ की एक नए ढंग़ की पहचान कर सकते हैं। जिस चीज को हम पहचान रहे हैं, उसको आत्मसात कर के उसके प्रति किसी तरह की भी विवके पर आधारित प्रतिक्रिया हम भाषा के बिना नहीं कर सकते। प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति और संप्रेष्ण भाषा के बिना संभव नहीं है।
भाषा एक समग्र संस्कृति की आत्माभिव्यक्ति का साधन है, लेकिन उसके साथ-साथ वह स्वरूप रक्षा का भी एक साधन है। समाज के साथ जब हम भाषा को जोडते हैं तो उसकी युगधर्मिता की ओर ध्यान देते हैं। आखिर हमारे सारे सामाजिक व्यवहार का आधार भाषा है, और भाषा है भी सामाजिक व्यवहार के लिए।
भाषा का एक फंक्षनल या प्रयोजनमूलक उपयोग है, हमारे दैनंदिन जीवन में उसका एक स्थान है। हमारे प्रयोजनों का वह साधन है। भाषा के बिना व्यवहार नहीं हो सकता और जिस भाषा का व्यवहार से संबंध नहीं है, वह भाषा समाज से भी टूट जाएगी। इसलिए जब पूरी संस्कृति का अवमूल्यन होता है तो समाज का अवमूल्यन होता है इसलिए भाषा का भी अवमूल्यन होता है।
भाषा में सर्जनशीलता है। हम देखते हैं कि कई समाज ऐसे होते है जिनमें सर्जनशीलता का स्थान उंचा होता है, और कई समाज ऐसे भी हैं जो कि एक खास तरह की मानसिक जड़ता गति का अभाव तथा सर्जनशीलता को विलासिता समझते हैं। यह इसलिए कि भाषा के मामले में सर्जनशीलता के प्रति एक संदेह का भाव है।
जिस परिस्थिति में हम जीते हैं, उसमें हमें निरंतर ध्यान में रखना चाहिए कि पूरा समाज जिस भाषा के साथ जीता है, उसमें और उसके साथ जीते हुए अगर हम उस जीवन संदर्भ को पहचानते हैं, और उस भाषा में रचना करते हैं, तो हमारा समाज भी रचनाशील हो सकता है। नहीं तो वहां भी उस के सामने नयी स्थिति एक चुनौती बन कर आती है। जरूरी नहीं की वह काव्य की कोई समस्या हो, जरूरी नहीं है कि विज्ञापन या रसायन की नई परिस्थिति हो। कोई भी नई चीज अनुवादजीवी समाज के सामने आती है, तो वह तुरंत दूसरे का मुँह देखने लगता है, क्योंकि अपनी शक्ति को पहचानना उसने सीखा ही नहीं। भाषा हमारी शक्ति है, उस को हम पहचाने-वह रचनाशीलता का उत्स है-व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।
भाषा का अपना समाजशास्त्र होता है। कभी भाषा समाज को परिभाषित करती है, तो कभी समाज, भाषा को। समाज की प्रत्येक गतिविधि भाषा के माध्यम से तय होती है। हम अपने प्राचीन काव्य एवं परंपराओं का अवलोकन करें तो भाषिक स्तर पर समाज बँटा मिलेगा। भाषा का समाजशास्त्र ही इस बात का जवाब दे देगा कि मागधी प्राकृत के साथ संस्कृत आचार्यों ने सौतेला व्यवहार क्यों किया। इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि आखिर संस्कृत नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्र इसका प्रयोग क्यों करते हैं? संस्कृत नाटकों में माँ प्राकृत बोलती है, बेटा संस्कृत बोलता है। लिंग के हिसाब से किसी समाज की भाषा नही बदलती है। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था के आधार पर भाषा को आरोपित किया गया है। प्राकृत निम्न श्रेणी के पात्रों पर उपर से थोपी गयी है, इसीलिए यह भाषा कृत्रिम है। सवाल है कि क्या भोजपुरी उसी की कोख से पैदा हुयी है? भोजपुरी का समाज यह मानने से रोकता है। भोजपुरी कृषि एवं श्रम-संस्कृति की भाषा है। इसके शब्दों में भोजपुर की माटी की सोंधी गंध है। यह मेहनतकशों और कामगारों, किसानों और मजदूरों की भाषा है।
अत: भाषा और समाज का नितांत गहरा संबंध है। समाज की हर झलक सुख, दुख, पीड़ा, अवसाद, गति, मूल्यों से संश्लिष्ट संस्कृति भाषा में बोलती है। यही भाषा का समाज-शास्त्र है।

शैली: अवधारणा

सत्येन्द्र कुमार
पी-एच।डी. हिन्दी (भा.प्रौ.)
शैली अंग्रेजी शब्द ‘स्टाइल’ का हिंदी रुपातंरण है जो ‘स्टीलस’(stylus) ग्रीक और लैटिन शब्द से व्युत्पन्न हुआ है, जो अपने आरंभिक समय में ग्रमोफोन कि सुई का अर्थ देती थी। इसके उपरांत धूप घडी एवं मोम की पट्टियों पर, जिस धातु से बनी नुकीली छडी/कलम से लिखा जाता था उसके लिए प्रयुक्त होने लगा। इसके अलावा ‘स्टाइल’ शब्द के पौराणिक नामों ‘स्टएर’ (staera=पर्वत,शीर्ष), ‘स्टाइलोस’ (stilos=स्तम्भ), ‘स्ताइलुस्स’ (stilus) को क्रमश:अवेस्ता, ग्रीक और लैटिन में देखा जा सकता है। शैली के ये प्राचीनतम अर्थ वर्तमान अर्थ से काफी भिन्न हैं।
शैलीविज्ञान के क्षेत्र में शैली का प्रयोग चार्ल्स बेली ने बोली के संदर्भ में किया। शैली विमर्श के संदर्भ में प्रथम अंतरराष्ट्रीय सेमिनार इंडियाना यूनिवर्सिटी और अमेरिका के सोसल रिसर्च काउंसिल के तत्वावधान में किया गया, जिसमें भाषाविदों, मनोवैज्ञानिकों एवं साहित्यालोचकों द्वारा विचार विमर्श हुआ।
शैली प्रादुर्भाव होने के तीन प्रकार हैं- व्यक्तिनिर्मित,व्यक्तिनिर्वाचित और समाजनिर्वाचित। शैलीविज्ञान यह मानकर चलता है कि साहित्य शाब्दिक कला है। तो साहित्य के मर्म को समझने का उपकरण भी शब्द (भाषा) ही है। अत: शैलीविज्ञान कि द्रिष्टि मूलत: भाषावादी है। बेनिसन ग्रे ने शैली के कई आयामों कि बात की है। उनके अनुसार शैली मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यवहार रूप, साहित्य एवं अलंकारशास्त्रिय दृष्टिकोण से वक्ता रूप, भाषाशास्त्री साइकोलाजिस्ट के दृष्टिकोण से प्रच्छन्न (लैटेंट) रूप, साहित्यालोचक के दृष्टिकोण से व्यक्तित्व रूप, दार्शनिक दृष्टिकोण से विवक्षित वक्ता रूप एवं भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से भाषा रूप है।
संक्षेप में शैली इस संसार में पाई जाने वाली अनेकरूपताओं में से किसी एक का चयन है। इसका अस्तित्व हमारे जीवन में है। यह एक अवधारणात्मक (notional) शब्द है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कार्य को करने या समझने की रीति-विशेष के रूप में शैली का अस्तित्व है और इसकी अपनी सत्ता है।

संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान (cognitive semantics)

धनजी प्रसाद

एम। ए। हिंदी (भाषा प्रौ।)

भाषाविज्ञान मेँ भाषा का अध्ययन करते हुए हमें मुख्यतः तीन प्रकार की व्यवस्थाएँ प्राप्त होती हैँ-
1. ध्वनि व्यवस्था
2.व्याकरणिक व्यवस्था
3. आर्थी व्यवस्था
इन सभी के अध्ययन के लिए भाषाविज्ञान की अलग-अलग शाखाएँ हैँ। यदि उपरोक्त मेँ अर्थ के अध्ययन की बात की जाय तो इसके संदर्भ मेँ अभी भी बहुत कम भाषावज्ञानिक कार्य हो सका है। भारत मेँ पारम्परिक वैयाकरणोँ द्वारा इस पर कार्य किया गया है। पश्चिमी अर्थ वैज्ञानिकोँ द्वारा अलग-अलग विधियोँ से प्रयास किया गया है। इनमेँ से एक सिद्धांत का नाम
संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान (cognitive semantics) है।
संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान (cognitive semantics) संज्ञानात्मक व्याकरण का एक भाग है। यह अर्थ को प्रत्ययीकरण (conceptualization) के साथ जोडता है। प्रत्ययीकरण मानसिक प्रक्रियाओं (mental processes) और संरचनाओं (structures) का एक भाग है। इसमें अर्थ को संपूर्णता के साथ देखा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी एंटिटी (entity) के संदर्भ में प्रत्येक ज्ञात वस्तु उसके अर्थ में योगदान देती है। इसी कारण कोशीय
मद (lexical items) प्रायः बहुअर्थी (polysemous) होते हैं और उनका विश्लेषण संबंधित भावों के संजाल (network of related senses) के रूप में किया जाता है।
संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान के क्षेत्र में पिछले 3-4 दशकों में कुछ अर्थवैज्ञानिकों द्वारा प्रयास किया गया है जिनमें लैंगाकर (Langacker), टाल्मी (Talmy), और लैकोफ (Lakoff) आदि उल्लेखनीय हैं।
संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान और भाषिक वर्ग (cognitive semantics and linguistic categories)_ संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान भाषिक वर्गों और मानसिक अनुभवों के वर्गों की आवश्यक अविच्छिन्नता (essential continuity) पर बल देता है। इसमें विश्व के ज्ञान (knowledge of word) और अर्थ के ज्ञान में भेद नहीं किया जाता। इस प्रकार से यह अधिक प्रत्यावर्ती ढंग से अर्थ की व्याख्या करता है।
शब्द और अर्थ मुख्यतः अपने विशेष क्षेत्रों से जुड़े होते हैं। जैसे- ‘हाथ’ (hand) शब्द मानव शरीर रचनाशास्त्र से जुड़ा हुआ है। इस द्र्ष्टि से बाँह को इसका आधार माना जा सकता है। यद्य्पि कभी-कभी अर्थ अपने विशेष क्षेत्रों की सीमा के बाहर हो जाते हैं। जैसे- अभी एक हाथ दूंगा। (यहाँ पर हाथ का अर्थ थप्पड़ से है।) इसी प्रकार, ‘अब सब कुछ आपके हाथ में है।‘ (यहाँ पर हाथ में का अर्थ ‘कार्यक्षेत्र् के अंदर से है।) इस प्रकार के अर्थ के क्षेत्रों में विस्तार को लैकोफ द्वारा ‘अनुभवात्मक मापन में आधायन’ (embeddedness in experiential mappings) कहा गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान मुख्य रूप से मानसिक अनुभवों (mental experiences) से संबंधित है। इसके किसी कोशीय मद का अन्वय ‘संज्ञानात्मक विशेष क्षेत्रों’ (cognitive domains) , जैसे- स्थान, समय, (space, time) आदि के साथ-साथ अनेक तथ्यों पर निर्भर करता है।

भाषा के प्रकार्य

प्रवीण पाण्डेय
एम।ए।हि.(भा.प्रौ.)
भाषा का प्रकार्यात्मक अध्ययन प्राग स्कूल की देन है। इस स्कूल की स्थापना 1926 ई. में हुई। इसके मूल संस्थापक विलेम मथेसिउस (Vilem Mathesius) हुए जो कैरोलाइन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। प्राग स्कूल की सर्वप्रमुख विशेषता भाषा का प्रकार्य के आधार पर विश्लेषण करना था। और इसमें यह दिखलाने की कोशिश की कि प्रत्येक संरचना अवयव का समस्त भाषा के प्रयोग के संदर्भ में क्या प्रकार्य होता है। इसलिए इस सिध्दांत को प्रकार्यात्मक भाषा विज्ञान (Functional Linguistics½ का नाम दिया गया है। अत: प्राग स्कूल को प्रकार्यवादी स्कूल या सम्प्रदाय भी कहा जाता है। प्राग सम्प्रदाय में इस दिशा में कार्य करने वाले प्रमुख भाषा वैज्ञानिक निकोलायी सेर्गेयेविच त्रुवेत्स्कॉय , आंद्रे मार्टिने तथा रोमन याकोव्सन हैं। प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञानी भाषा की सन्दार्भाश्रित शैलियों को भी महत्वपूर्ण मानते हैं।
इनका मानना है कि अलग-अलग सामाजिक सन्दर्भों में वक्ता अलग-अलग शैलियों का प्रयोग करता हैं।
निकोलायी सेर्गेयेविच त्रुवेत्स्कॉय प्रकार्य सिध्दांत को स्वनिम के क्षेत्र में प्रयोग करने लिए विख्यात हुए। आंद्रे मार्टिने ने ध्वनि- परिर्वतन पर विचार किया और परस्पर स्वनिमों की प्रकार्यात्मक उपयोगिता की व्याख्या करने का प्रयत्न किया।
इसी काल में आस्ट्रिया में एक मनोवैज्ञानिक कार्ल ब्रुल्हर हुए जिन्होनें भाषा के प्रकार्यात्मक सिध्दांतो को लेकर महत्वपूर्ण बात कही। इनका मानना था कि भाषा एक संकेत व्यवस्था है किन्तु यह सम्प्रेषण का एक उपकरण है। इस उपकरण के माध्यम से वक्ता स्रोता से कुछ कहता है। इस प्रकार भाषा उपयोग के तीन आधारभूत तत्व हैं-
वक्ता
स्रोता
विषय संदर्भ
ये तीनों कारक तत्व सम्प्रेषण के साथ सहसंबध्द होते हैं अर्थात् यदि इनमें से एक भी बदल जाय तो सम्प्रेषण बदल जाएगा। इन तीनों आधारों को लेकर उन्होंने भाषा के तीन प्रकार्यों की बात की हैं-
1- संकेत और वक्ता के संदर्भ में भाषा का अभिव्यंजक प्रकार्य होता है।
2- संकेत और स्रोता के संदर्भ में भाषा का आर्कषक प्रकार्य होता है।
3- संकेत और विषय के संदर्भ में भाषा का निरूपक प्रकार्य होता है।
रोमन याकोव्सन भी भाषा के तीन आधारभूत तत्व माने हैं-
1. वक्ता
2. श्रोता
3. सन्दर्भ
वक्ता की दृश्टि से भाषा अभिव्यक्ति का प्रकार्य, श्रोता की दृश्टि से प्रभाविक प्रकार्य और सन्दर्भ की दृश्टि से साम्प्रेषणिक प्रकार्य करती है। इसके अतिरिक्त तीन सन्दर्भ- कूट, सम्पर्क और सन्देश भी भाषा बनाती है। इसके आधार पर रोमन याकोब्सन ने भाषा के छह
प्रकार्य माने हैं-
1. अभिव्यक्तिक प्रकार्य (Expressive Function)
2. इच्छा परक प्रकार्य (Conative Function)
3. अभिधापरक प्रकार्य (Donative Function)
4. सम्पर्क परक प्रकार्य (Phatic Function)
5. आधिभाषिक प्रकार्य (Codifying Function)
6. काव्यात्मक प्रकार्य (Poetic Function)
प्रकार्यवादियों के अनुसार भाषा की संरचना प्रकार्य के अनुरूप बदल जाती है। इस प्रकार एक ही भाषा प्रकार्यानुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत होती है। उपर्युक्त छह रूप भाषा के अभिव्यक्तिक सन्दर्भ से जुड़े हैं।
रोमन याकोव्सन ने भाषा के प्रकार्यो का निर्धारण करके भाषा के अभिलक्षणों और ध्वनियों का अध्ययन किया है। इन्होंने स्वनिमों को प्रभेदक अभिलक्षणों का गुच्छ (bundle) कहा, जो इनकी महत्वपूर्ण देन है।

भाषा की द्वैत संरचना (Duality Of Patterns)

मोहिनी मुरारका
एम.ए.हिंदी(भा.प्रौ.)
भाषा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। भाषा के द्वारा मनुष्य अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करता है। किंतु भाषा जहाँ विचारों को प्रकट करने का कार्य करती है वही दूसरी ओर भावों को छिपाती भी है। भाषा मनुष्य को ऐसा प्रकृति प्रदत्ता वरदान मिला है जिसके माध्यम से मनुष्य पषु जगत से अपनी अलग पहचान बना पाया है। यदि भाषा को परिभाषित किया जाए तो -''भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चरित मूलत: यादृच्छिक स्वन प्रतिकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा किसी भाषा समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।''
प्रसिध्द अमेरिकी भाषाविद् चार्ल्स एफ. हॉकेट ने सन् 1958 में (Course Of Modern Linguistics½ नामक किताब लिखी। जिसमें उन्होनें भाषा के सात अभिलक्षण (Design Feature Of Language½ बताए हैं। किंतु कुछ विद्वानों ने इन अभिलक्षणों की संख्या नौ बताई है जो निम्नलिखित है-
1. यादृच्छिकता 2. सृजनात्मकता 3. अनुकरणग्राहता 4. परिवर्तनशीलता 5. विविक्तता 6. द्वैतता 7. भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन 8. अंतरणता 9. असहजवृत्तिाकता।
हॉकेट ने अपने अभिलक्षणों में मुख्य रूप से भाषा की द्वैत संरचना (Duality Of Patterns½ का वर्णन किया है। इसमें उन्होनें बताया कि मानव भाषा, मानवेतर भाषा से किस प्रकार भिन्न है। मानवीय भाषा भाषिक संप्रेषण की भाषा है और प्रत्येक भाषा की अपनी एक संरचना और व्यवस्था होती है। जिसमें कुछ सार्थक तथा कुछ निरर्थक इकाइयाँ होती है। भाषा में प्रयुक्त सार्थक इकाईयों को रूपिम कहते हैं और निरर्थक इकाईयों को स्वनिम कहा जाता है। कोई भी वाक्य इन इकाइयों के योग से बनता है। अत: इसे द्वैतता कहा जाता है। मानव भाषा में यह द्वैतता अभिव्यक्ति के स्तर पर देखी जा सकती है जिसमें सीमित ध्वनियों के आधार पर असीमित वाक्य का सृजन किया जाता है। भाषा के दो पक्ष होते हैं- 1. अभिव्यक्ति पक्ष और 2. कथ्य पक्ष। अभिव्यक्ति पक्ष में स्वनिम का विषेश महत्तव होता है, वहीं दूसरी ओर कथ्य पक्ष में रूपिम का। स्वनिम निरर्थक इकाईयाँ होने पर भी सार्थक इकाईयों का निर्माण करती है। उदाहरण के लिए - क+अ+म+अ+ल में पाँच स्वनिम निरर्थक इकाईयाँ है जो कमल सार्थक शब्द का निर्माण करती है। यहाँ एक बात यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि केवल ध्वनि को भाषा नहीं कहा जा सकता है और न ही अर्थ को। अत: ध्वनि और अर्थ दोनों का सान्निध्य ही भाषा है। किंतु पशुओं की ध्वनि उनके लिए संप्रेषणीय हो सकती है। इसी संदर्भ में Herbert Terrace (1979) ने Nim Chimpsky नामक Chimpanzee पर अपना भाषा संबंधी शोध कार्य किया था। इसी प्रकार Francine Patterson द्वारा koko पर किया गया शोध उल्लेखनिय है।
(भाषा विद्यापीठ में होनेवाली सामूहिक परिचर्चा का सारांश)

समाजभाषाविज्ञान

पुनीत कुमार भारती
एम फिल हिंदी (भाषा प्रौद्योगिकी)
समाजभाषाविज्ञान भाषावैज्ञानिक अध्ययन का वह क्षेत्र है जो भाषा और समाज के बीच पाये जानेवाले हर प्रकार के सम्बंधों का अध्ययन विश्लेषण करता है। समाजभाषाविज्ञान शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है जिसमें क्रमश: समाज, भाषा और विज्ञान है। समाज, मानव समुदाय को समाज कहते है, तथा यह मानव समुदाय विचार विनमय के लिए जिस उच्चरित ध्वनियों का प्रयोग करता है उसे उस समाज क बोली या भाषा कहते है, और भाषा का संरचनात्मक और व्यावहारिक वैज्ञानिक रूप से जब किया जाता है तो उसे भाषा विज्ञान कहते है।
अर्थात समाजभाषाविज्ञान वह है जो भाषा की संरचना और प्रयोग के उन सभी पक्षों एवं संदर्भों क अध्ययन करता है जिनका सम्बंध सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रकार्य के साथ होता है अत: इसके अध्ययन क्षेत्र के भीतर विभिन्न सामाजिक वर्गों की भाषिक अस्मिता, भाषा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण एवं अभिवृत्ति, भाषा की सामाजिक शैलियाँ ,बहुभाषिकता का सामाजिक आधार, भाषा नियोजन आदि भाषा-अध्ययन के वे सभी संदर्भ आ जाते है, जिनका संबंध सामाजिक संस्थान से रहता है ।
आज जिस सामाजभाषाविज्ञान की चर्चा की जाती है, वह समाजशास्त्र और भाषाविज्ञान के मात्र अवमिश्रण का न तो परिणाम है और न ही वह सामाजिक-व्यवस्था और भाषिक व्यवस्था की कोई सह-संकल्पना है वह यह मानकर चलता है कि भाषा, समाज सापेक्ष प्रतीक व्यवस्था है और इस प्रतीक-व्यवस्था के मूल में ही सामाजिक तत्व निहित रहते है हम किसी एक व्यक्ति के लिए कहते हैं-
''आप इधर आइए।''
तो दूसरे व्यक्ति से बोलते है -
''तू इधर आ''।
जब हम प्रतिष्ठा प्राप्त डॉक्टर या प्रोफेसर से कहते है-
''कृपया बताइए कि....''
जबकि किसी धोबी या मोची से बात करते हुए बोलते हैं -
''तू यह बता कि...''
इसी प्रकार अपने माता-पिता या दादा नाना से बहुवचन का प्रयोग करते हुए बोलते हैं-
''आप यहाँ बैठें।''
जबकि छोटे बेटे-बेटी या नाती-पोतों से बातचीत करते समय एकवचन का प्रयोग करते हुए कहते हैं-
''तू यहाँ बैठ'',या फिर ''तुम यहाँ बैठो।''
तू, तुम, या आप में किसी एक के प्रयोग अथवा एकवचन या बहुवचन में एक के स्थान पर दूसरे के चयन के पीछे का निर्धारक तत्व भाषा-प्रयोग का सामाजिक बोध ही होता है। सामाजभाषाविज्ञान की यह मान्यता है कि भाषा को इस सामाजिक बोध अथवा उसके सामाजिक प्रयोजन से अलग कर देखना असंगत है । अत: वह भाषा को शुध्द भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था नहीं मानता, जैसा कि सैध्दांतिक भाषावैज्ञानिकों का एक वर्ग स्वीकार करता है। वह एक वर्ग स्वीकार करता है। वह तो भाषा को सामाजिक प्रतीकों की एक उपव्यवस्था के रूप में परिभाषित करता है। इस प्रकार हम देखते है कि समाजभाषा में समाज द्वारा जहां निर्वाध गति से बोलता है वह कभी भाषा का ध्यान न देकर वह सम्प्रेषण पर विशेष ध्यान देते हुए मुख सुख का सुविधा देना चाहता है। उसको भाषा विज्ञान में समाजभाषाविज्ञान कहते है।

समाजभाषाविज्ञान में सामाजिक प्रतीक,संप्रषण ,शाब्दिक घटना, संपूर्णभाषा, वार्तालाप तथा भूमिका आधारित होती है। समाजभाषाविज्ञान की धरण को आगे बढ़ाने वालों में 'लेबाव' का नाम सबसे प्रमुख है। यह वर्ग मानता है कि भाषा और समाज के संबंधो को भाषाविज्ञान के अपने संदर्भ से अलग नहीं किया जा सकता । भाषा स्वंय में एक सामाजिक वस्तु है, अत: उसकी मूल प्रकृति में ही सामाजिक तत्व अंतर्भूत होते हैं। ये ही तत्व भाषा को विषमरूपी और विकल्पनयुक्त बनाते हैं। भाषा-व्यवहार में प्राप्त इन विकल्पनों का अध्ययन भाषा की वास्तविक प्रकृति का उद्धाटन करता है। लेबाव का यह कथन है कि समाजभाषाविज्ञान ऐसी कोई अलग विधा नहीं मानी जा सकती ,क्योंकि समाजभाषाविज्ञान ही तो वास्तविक भाषाविज्ञान है।

भाषा और कंप्यूटर

योगेश विजय उमाले
एम ए हिंदी भाषा प्रौद्योगिकी
संसार के ज्ञान को जानने के लिए भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। भाषा मानव जीवन तथा समाज का अभिन्न अंग है। इसके द्वारा न केवल विचारों, सूचनाओं तथा भावों का संप्रेषण होता है, अपितु तथ्यों के आकलन, चिंतन एंव समस्त व्यवहार का आधार भी भाषा है।
रोमन यॉकोब्सन के अनुसार भाषा संप्रेषण का माध्यम है। और यह संप्रेषण वक्ता और श्रोता के बीच में होता है। इसको समझने के निए रोमन यॉकोब्सन के निम्न मानचित्र से सहायता की जा सकती है।
संदर्भ (CONTEXT )
वक्ता(ADDRESSER) संदेश(MESSAGE) श्रोता (ADDRESSEE)
संपर्क(CONTACT) भाषा तंत्र (CODE)
उपर्युक्त मानचित्र से समझा जा सकता है कि वक्ता यानी बोलने वाला व्यक्ति जब किसी व्यक्ति से बात करता है, अर्थात श्रोता को संदेश प्रेषित करता है तो यह संदेश किसी भाषा-तंत्र (CODE) के माध्यम से दिया जाता है। प्रत्येक संदेश किसी -न- किसी ''परिप्रेक्ष्य'' में दिया जा सकता है। और यह भी कि यह संदेश किसी संपर्क या संदर्भ के द्वारा दिया जाता है।
रोमन यॉकोब्सन के इस सिध्दांत को प्रकार्यात्मकवादी (प्राग संप्रदाय) के नाम से जाना जाता है।
यह तो सर्वविदित है, कि कंप्यूटर एक मशीन है। किसी भी मशीन का निर्माण किसी विशिष्ट प्रयोजन से होता है, और उस मशीन की अपेक्षाओं के अनुसार उससे काम लिया जाता है। मानव और मशीन के बीच संबंध काफी पुराना है। वर्तमान में मानव पैन्ट के चैन से लेकर पेन के नोक तक के निर्माण में मशीन का उपयोग करते हैं।
कंप्यूटर मशीन में स्वचलित कंप्यूटर के निर्माण के बाद में कृत्रिम बुध्दी (ARTIFICIAL INTELLIGENCE) के चिप लगाए जाते हैं और उसे कंप्यूटर की भाषा में प्रोग्राम अर्थात क्रमानुदेश दिए जाते हैं। एक समूची कंप्यूटर प्रणाली के मुख्यत: तीन अंग होते हैं। इसे निम्नलिखित मानचित्र से समझा जा सकता है-



हार्डवेयर प्राणली प्राणाली सॉप्टवेयर यूजर
1) हार्डवेयर प्राणाली :-
कंप्यूटर के वे भाग जिन्हें हम आँखों से देख सकते और हाथ से स्पर्श कर सकते हैं। अर्थात यांत्रिक, विद्युतीय तथा इलेक्ट्रॉनिक भाग कंप्यूटर हार्डवेयर के नाम से जाने जाता है। इसके अंतर्गत CPU, Monitor, Keyboard, Mouse, Printer आदि होते हैं।
2) प्रणाली सॉफ्टवेयर :-
हार्डवेयर तभी काम करेगा जब प्रणाली सॉफ्ट्वेयर काम करेगा। इन्हें मूलत: अंग्रेजी में तैयार किया जाता है, और अंग्रेजी तथा हिन्दी और भारतीय भाषाओं से काम करने वाले कंप्यूटरों में भी इनका इस्तेमाल किया जाता है। ये हार्डवेयर को निर्देश देता है, ताकि डाटा को प्रोसेस किया जा सके ओर वांछित सूचना को प्राप्त किया जा सके। इसके अंतर्गत डॉस, विडोंज, यूनिक्स, शब्द संसाधन, डेटा संसाधन आते हैं।
3) यूजर :-
प्रणाली सॉफ्टवेयर तो कंप्यूटर के हार्डवेयर को काम करने योग्य बनाता है। लेकिन सॉफ्टवेयर के लिए विशिष्ट अनुप्रयोग के सॉफ्टवेयर के पैकेज भी तैयार किए जाते हैं। इस प्रोग्राम पर कार्य करने वाला व्यक्ति जो प्रोग्राम पर काम करता है, और आउटपुट प्राप्त करता है, उसे यूजर की श्रेणी में रखा जाता है।
कंप्यूटर वस्तुत: न तो अंग्रेजी समझता है न ही हिन्दी या अन्य कोई भाषा। उसकी अपनी भाषा होती है। यह द्विआधारी अंको (Binary) अर्थात 0 से 1 अंको पर कार्य करता है। पास्कल, कोबॉल, सी-डीबेस आदि कंप्यूटर भाषाएँ हैं। इन भाषाओं के माध्यम से ही कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किये जाते हैं। इस प्रकार कंप्यूटर भाषा की दृष्टि से स्वतंत्र है और् कंप्यूटर का प्रोग्राम कंप्यूटर में लगे कम्पाइलर (अनुवादक) के माध्यम से काम करता है।
उपर्युक्त विवेचनों से समझा जा सकता है कि भाषा एक संरचना है, लेकिन यह भाषा संरचना संप्रेषण के माध्यम से वक्ता और श्रोता के अभिव्यक्ति ,विचार, आकलन तथा चितंन के साधन का कार्य करती है। यह संरचना संप्रेषण के आधार पर झुकी हुई दिखाई देती है। इसलिए भाषा एक प्रकार्य का कार्य करती हुई दिखाई देती है।
कंप्यूटर एक मशीन है। इसका निर्माण विशिष्ट प्रयोजन के लिए किया गया। लेकिन धीरे-धीरे कंप्यूटर का विकास होते हुए, स्वचलित कंप्यूटर का विकास होने के वजह से कंप्यूटर में कृत्रिम बुध्दि (Artificial Intelligence) के चिप लगाने पर उसमें स्वंय सोचने की क्षमता आ गई है। कंप्यूटर एक मशीन के साथ-साथ एक संरचना भी है, और यह संरचना हार्डवेयर, प्राणाली सॉफ्टवेयर, और यूजर इनकी ओर झुकी हुई दिखाई देती है।
संदर्भ :-1 गोपीचन्द नारंग, संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद,एंव प्राच्य काव्यशास्त्र
2 कंप्यूटर विज्ञान, दिल्ली प्रकाशन

भाषा-प्रौद्योगिकी से संबंधित महत्वपूर्ण लिंक

रंजीत कुमार सिंह
एम ए हिन्दी (भा।प्रौ।)
1. www. wisegeek.com/what .is-morphology.htm

2.www.sil,org/linguistics/glossary of linguistic terms.

3.www.varsitynotes.com/linguistics/phonology.htm

4. nyu.libguides,com/content,phd

5. www.ciil.org

12 मार्च 2010

इस अंक के सदस्य

सम्पादक- अखिलेश कुमार
सम्पादन-मंडल - अविचल गौतम, अनामिका, धनञ्जय झाल्टे
शब्द-संयोजन - करूणानिधि, योगेश उमाले
आवरण-पृष्ठ (पुस्तक रूप) - हेमलता गोडबोले, मनोज कुमार
वेब-सम्पादन - अमितेश्वर

सम्पादक के की-बोर्ड से

आमतौर पर हम जब भाषा की बात करते हैं तो यह तथ्य इसमें निहित होता है कि हम मानव भाषा की बात कर रहे हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर मनुष्य के आविर्भाव के विकास क्रम में अनन्त भाषाओं ने जन्म लिया और समय के साथ-साथ वे प्राय: मृतप्राय होती चली गईं। मनुष्य ने अपने सामाजिक व्यवहार में संप्रेषण के लिए जिन ध्वनियों, प्रतीकों और संकेतों का प्रयोग किया उन्हीं से भाषा की निर्मिति हुई है। संपूर्ण संसार में भाषा असंख्य रूपों में विद्यमान हैं। भाषा वैज्ञानिकों द्वारा काल, स्थान, देश, स्तर आदि के आधार पर उसका वर्गीकरण भी किया गया है।
आज समूची शिक्षा जगत में भाषा संबंधी नित नए-नए विमर्श उपज रहे हैं। साहित्य, समाज विज्ञान, दर्शन, मानव विज्ञान, जेंडर अध्ययन समेत ज्ञान की समस्त विधाओं ने भाषा संबंधी अपने अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। चूंकि कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में भाषा हमारे व्यक्तित्व एवं संस्कृति की निर्धारक होती है अत: हम इन विधाओं द्वारा उपजी बहसों और विमर्शों को नजरअंदाज़ नहीं कर सकते।
भाषा विज्ञान में भाषा को लेकर मौजूदा समय में अनेक चिन्ताएँ व्याप्त हैं। सबसे बड़ी जो चिन्ता है वह है भाषा के मानकीकरण की। एक ही भाषा के अवयवों को हम अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग पाते हैं। हिन्दी भाषा के साथ विशेष रूप से यह समस्या जुड़ी हुई है। आज जहां हिन्दी को विश्वभाषा बनाने की पूरी मुहिम चल पड़ी है वहीं इसके साथ नित नए-नए संकट भी खड़े हो रहे हैं और इस समस्या से निज़ात पाने के लिए भाषा वैज्ञानिक लगातार प्रयासरत हैं। वैश्वीकरण की भागमभाग ने सूचना क्रान्ति के तहत हमें आधुनिकतम तकनीकों से लैस किया। यह अलग प्रश्न है कि इस क्रान्ति का स्वरूप और चरित्र क्या है? भाषा विज्ञान और आधुनिक तकनीकों की सहायता से भाषा सम्बन्धी अनेक समस्याएँ धीरे-धीरे सुलझ रही हैं।
आज शिक्षा के बारे में भी धारणाएँ बदल रही हैं। पहले थोड़ा बहुत अंग्रेजी का ज्ञान होने पर ही शिक्षित होने का पर्याय मान लिया जाता था परन्तु सूचना प्रौद्योगिकी के विकास ने इस धारणा को बदल दिया है। हिन्दी को विश्वभाषा बनाने की मुहिम का जो मुख्य लक्ष्य है ज्ञान की समस्त विधाओं को केवल हिन्दी में ही लाना नहीं है बल्कि हिन्दी में ही ज्ञान का सृजन भी करना है। और यह तभी सम्भव है जब हम तकनीकी रूप से सक्षम होंगे। ऐसे में जरूरत होगी ऐसे मानक तकनीक की जिसे एक साथ सम्पूर्ण विश्व में लागू किया जा सके। भारतीय भाषाओं में प्रौद्योगिकी का विकास अंग्रेजी की तुलना में कम है या हम यह कह सकते हैं कि अभी विकासशील स्थिति में है। इसका मूल कारण यह है कि प्रौद्योगिकी को हमेशा से ही विज्ञान से जोड़कर देखा गया और इस विधा के शोध आदि अंग्रेजी में होते रहे हैं। परन्तु आज जनसामान्य के प्रौद्योगिकी से जुड़ने का सारा श्रेय भारतीय भाषाओं में विकसित उपकरणों को जाता है, जिसे वे आसानी से समझ सकते हैं।
भारतीय भाषाओं को प्रौद्योगिकी से जोड़ने के क्रम में भाषा-प्रौद्योगिकी नामक ज्ञान की नई विधा का जन्म हुआ। यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और इसके लिए आवश्यकता है, भाषा वैज्ञानिकों के एक नई पीढ़ी की जो हिन्दी भाषा के साथ-साथ संगणकीय भाषाविज्ञान का समग्र ज्ञान रखते हों और पश्चिमी भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की तुलना में भारतीय भाषाविज्ञान को नई दिशा प्रदान कर सकें। हिन्दी को विश्वभाषा बनाने को भी इस विधा को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना होगा और इसके लिए हर सम्भव प्रयत्न करना होगा।
इसी उद्देश्य और कामना के साथ ‘प्रयास’ का यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत है। मैं उन समस्त लेखकों का आभारी हूं जिन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने आलेख दिए। भाषा विद्यापीठ और विश्वविद्यालय के उन समस्त मित्रों का हृदय से आभार जिन्होंने इस पत्रिका को अपना सहयोग प्रदान किया।

अखिलेश कुमार

Connectionist model


अर्चना देवी


fig.1





fig.२











Connectionist model is also termed as “faculty model” .Faculty models are those in which the principal language functions are represented in the brain and these functions are entirely task oriented processes. The views of Wernicke and Lichtheim created a frame work for the classification and understanding of aphasia, and simultaneously, a model of the way language was represented in the brain which attempted to characterize language structures or the psychological processes that make up the various acts of language use, such as speaking, understanding and etc. It also included all the major tasks which language is put and claim to provide a complete numeration possible aphasic syndrome. The faculties which are postulated in the classical connectionist model are ex classically the major “on line” tasks of the psychology of language, tasks which occur in real time, and in which a speaker or listener produces or recognizes sequences of acoustics or graphic elements under time constraints. These are the usual “task” to which language put.
In the connectionist model, each of the psycholinguistic faculties of reading, writing, speaking, and hearing was considered an individual entity. Each was connected to the other and the connectionist model provides some provisions for the interaction between the components. Wernicke opposed “localization” and proposed that many functions resulted from connecting
various components. He thought that the major psycholinguistic functions understanding, spoken speech, speaking, reading, writing could be considered to constitute psychological entities which could be represented in the “center” , he believed that two or more centers could participate in a single function. This was the “simple” psychological function and the approach came to be known as “connectionist” because complex functions were built by connecting simple
components. Lichtheim adopted wernicke’s views essentially with respect to two major areas involved in language-Braca’s(H) and wernicke’s area(A). He thought that the first was involved in speech production, and believed that it contained the articulatory representations necessary for utterances. As for the second, he argued with wernicke’s notion that it contained the memory traces of the auditory term of words, and that its function was primarily the perception of
speech and followed wernicke in postulating “connectionist”. He suggested that there was “concept area” (B) which he thought was diffusely represented in the brain.

see fig. 1


The type of aphasia that would be predicted from the model depended upon the nature of information flow between various components. A lesion of H will cause the Broca’s aphasia. A disorder of A will cause wernicke aphasia. A disorder of connecting pathway will cause the “conduction” aphasia predicted by wernicke. In addition Lichtheim argued that there were four other forms of aphasia, all due to interruption of connecting pathways.Ttranscortical sensory aphasia, due to disruption of the path between B and A. Transcortical motor aphasia,due to a lesion between H and B. Subcortical sensory aphasia, interrupting the pathways from the periphery to A which leads to pure word deafness and subcortical motor aphasia, due to lesion between H and the oral, musculature which produces dysarthria-a disturbance of articulation.

see fig.2



Lichtheim’s extended the diagram incorporating the center ‘O’ for the memory of the visual form of words. He argued for the existence a separate area for the representation of the motor sequences involved writing.This center was ‘E’ in the diagram and the co-occurrence of disorder of writing areas testified to the link between Broca’s area H, and the writing center E.
Lichtheim attempted to provide principled description for the functioning of the components of his model. He realized that this description of the different syndromes as a result different lesion could be considered for the analysis of written language too. He was committed to an anatomically based model.
The model was originally based on the approach of the representation of language in the brain.
Advantages: 1. Connectionist theories have played a very significant role in the development of language representation in the brain. The theory has tremendous clinical utility. The clinician, by assessing a patient’s ability in each of the major psycholinguistics tasks- speaking, understanding, spoken language, reading, writing and repetition is able to make reasonable hypothesis as to the location of the lesion producing the aphasia, and to locates the pathological cause of the lesion.Especially in the era of clinical neurology in which sophisticated radiological diagnosis was not available, these hypothesis were the best theory available.
2. Secondly, it is the connectionist model in which the notion of “center” emerges most- clearly, A center consists of a single psycholinguistics faculty, associated with era major type of storage for linguistics item located in a particular area of the brain.
3. Finally, connectionist theory defined a level of observation and description of both normal and abnormal language which strongly influenced many works.
The feature of language in connectionist model were the on –line tasks of language use and stressed the assessment of the relative quantitative impairment of each of the on –line tasks. On the neurological side it emphasized or the localization of functions in gyri and groups of adjacent gyri.
Objections to connectionism: There were several claims to connectionism and these were divided into three main groups-
1. It was claimed that the basic observation made by connectionism were incorrect, there were additional observation about aphasic performance cast the theories of brain language relationships into doubt.
2. The second group of objection is directed towards the logic of the connectionist inferences from aphasic symptoms to neurolinguistics theory. These objections focused on the theory without disputing the actual observation of aphasia made by the connectionist.
3. The third set of objections consists of the view that the neurolinguistics theory should be based upon a different set of observation about the behaviour of aphasic patients from which the connectionists made