26 नवंबर 2009

स्वाभिमान, अभिमान और हम

सत्येंद्र कुमार
पी-एच.डी.-हिन्दी (भाषा प्रौद्यौगिकी)
स्वाभिमान कब अभिमान व अभिमान कब स्वाभिमान बन जाता है अक्सर लोगों को इसका आभास तक नहीं चलता और बात आकर रुक जाती है अपने प्रभुत्व, स्वामित्व पर कि हम कैसे इसकी स्थापना इनके मूल्यों के मानदंडों पर करें जिसका सर्वसाधारण से कोई सरोकार नहीं होता। हम यह भूल जाते हैं कि हमारा अस्तित्व केवल हमसे नहीं वरन हमसे जुड़े लोगों के चलते भी है, पर ’स्व’ की विशिष्‍टताओं के लिए हम इतने स्वार्थी और सरोकारी बन जाते हैं कि किसी भी स्वांग को अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वैश्‍वीकरण और उत्तर आधुनिकता के इस दौर में हम अपनी पहचान बनाने के लिए दूसरों के हितों का दोहन और शोषण करते हैं जिसमें मानवीय मुल्यों का क्षरण होता है यह क्षरण उस तीसरी दुनिया का निर्माण करती है जो कि पीड़ितों और शोषितों की दुनिया है। हम अपने स्वाभिमान या अभिमानवश जिसमें कई बार कोई अंतर नही देखा जाता। स्वार्थवश दुसरों की तकलीफ को अपने मनोरंजन से जोड़कर देखते हैं।इस बात से स्पष्‍ट होता है कई समाज में कुछ ऐसे अराजक व असामाजिक तत्व पल रहे हैं जो तथाकथित संभ्रात वर्ग से होते हैं जिनकी छत्रछाया मे ’आतंकवाद’ जैसे कितने ’वाद’ पलते हैं और जन्म लेते हैं। दरअसल स्वाभिमान और अभिमान दो ऐसे शब्द हैं जिन्हें व्यक्ति अपने सरोकार के निमित्त सहुलियत के हिसाब से प्रयोग में लाते हैं और केवल अभिजात वर्ग के लोग इसकी व्याख्या के बिंदुओं को निर्धारित करते हैं। जिसमें मानवता की लाश पर दानवता का तांडव, करुणा के स्वांग पर निर्ममता का वरण, पीड़ा की कराह पर मनोरंजन का वादन निर्मित किया जा रहा है। हमें अमानवीयकरण की प्रक्रिया में ग्लोबलाइजेशन, पोस्ट मॉडर्निजम में कहाँ स्थान मिलता है और कब तक...

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