11 अक्तूबर 2009

अंक– सितम्बर 09 के सदस्य

संपादक - अरिमर्दन कुमार
संपादक मण्डल - करुणा निधि, प्रवीण कुमार पाण्डेय, मधुप्रिया पाठक
शब्द-संयोजन - अविचल गौतम, धनंजय विलास झालटे, संतोष कुमार सिंह
वेब-प्रबंधन - अमितेश्वर कुमार पाण्डेय

संपादक के की-बोर्ड से

भाषा के मूल में अभिव्यक्ति होती है, जब यह मुख से उच्चरित होती है, तो व्यक्ति को अभिव्यक्त करती है और जब मौन रहती है, तो समाज को। हिन्दी ने यह काम अपने समाज के लिए बखूबी किया है, अपने लचीले स्वभाव एवं जनपक्षधर भूमिका में यह हमेशा उस वर्ग के दर्द एवं आक्रोश दोनों की भाषा रही है, जो व्यवस्था से प्राय: उपेक्षित रही है। यही कारण है कि संस्कृत से लेकर आज तक के हिन्दी के परिवर्तनशील स्वरूप पर कोई कितनी भी आपत्ति क्यों न दर्ज करे, इसने हमेशा उस भाषिक रूप को चुना है, जो आम जन में प्रचलित रहा है, जिसको बेसिल बर्नस्टीन ने निम्न कोड (Restricted Code) कहा है। चंद लोगों द्वारा आरोपित सायास परिवर्तन को इसने हमेशा नकारा है और अधिसंख्य आम जन में पल्लवित-पुष्पित होती रही है। इसी को किसी भाषा का लोकतांत्रिक स्वरूप कहा जाना चाहिए। लेकिन अभिव्यक्ति के दूसरे स्वरूप में जब हिन्दी अपने समाज को अभिव्यक्त कर रही होती है, तब यह संप्रेषण अंतर-सामाजिक होता है और तब इसके समाज का वह चेहरा आड़े आ जाता है, जो हिन्दी की बात तो हर मंच से करता है, लेकिन मंच से उतरने के बाद से ही टी.ए., डी.ए. पर पूरी उर्जा लगा देता है। दुर्भाग्य से यही समाज हिन्दी के समग्र समाज का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है, जिसके बारे में और कुछ न भी कहा जाय, तो बहुत कुछ समझा जा सकता है। हम आत्ममुग्ध लोग भले न समझें, लेकिन हिन्दी को जो कुछ विरोध सहना पड़ा है वह अपने भाषायी पक्ष पर नहीं, बल्कि इस सामाजिक पक्ष पर ही, क्योंकि भाषा को उसके समाज से काट कर नहीं देखा जा सकता है।
बहरहाल अभिव्यक्ति के आयाम वर्तमान में बदले हैं, इसमें एक तरफ भौगोलिक दूरी घटती जा रही है, तो वहीं दूसरी तरफ इसके साधन भी परिवर्तित होते जा रहे हैं। आज इंटरनेट और मोबाईल जैसे संप्रेषण के माध्यमों के लिए जिन तंत्रों का उपयोग किया जा रहा है, उनके संप्रेषण की अपनी शर्तें हैं और इसमें हिन्दी काफी दूर दिखती है और हिन्दी समाज इससे भी दूर है। संतोषजनक स्थिति यह हो सकती है कि इस दूरी को पाटने के लिए बाजार तैयार है, लेकिन बाजार का उद्देश्य पूँजी है न कि हिन्दी। इन स्थितियों में हिन्दी का जो अमानक रूप सामने आ रहा है, दरअसल यह वह रूप कदापि नहीं है, जो आम जन के उपयोग के उपरांत दिखता है और यही स्थिति हिन्दी के लिए घातक है। अब यह हिन्दी की वर्तमान संभावनाशील पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वह क्या कर सकती है। कोई भी पत्रिका अपने पाठकों के बीच लोकप्रियता के पैमाने पर ही मापी जा सकती है, ऐसे में यह पत्रिका अपने विशिष्ट विषय-वस्तु और सीमित पाठक-वर्ग के बावजूद जो प्रतिक्रियाएँ पायी है, इससे इसके सफल होने की सूचना मिलती है। बहरहाल इस अंक के लेखकों को इस अपेक्षा के साथ धन्यवाद, कि वे हमे क्षमा करेंगें, क्योंकि अधिकाधिक लेख शामिल करने के सम्मोहन में तथा सीमित स्थान के वजह से कुछ लेखों के मूल अंशों को काटा गया है, साथ ही विभिन्न स्तर पर कार्य कर रहे अपने सहयोगियों को धन्यवाद के साथ यह अंक आपके सामने है, इस उम्मीद के साथ कि हिन्दी समाज का वह प्रतिनिधि चरित्र बदले, जो अब तक हिन्दी भाषा पर भारी पड़ता रहा है।
अरिमर्दन

काव्यास्वाद

-प्रस्तुति
करुणा निधि
एम. फिल., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग


भाषा को विचारों की संवाहिका और अभिव्यक्ति का माध्यम कहा गया है। व्यक्त होने से पूर्व यह व्यक्ति के मन में विचार के रूप में उपस्थित रहती है। जब इन विचारों की अभिव्यक्ति ध्वनि रूप में होती है तब ये विचार भाषा की संज्ञा पाते हैं। स्पष्ट है कि भाषा जैसी संपत्ति सभी मनुष्यों के पास होती है अर्थात्‍ मनुष्य स्वाभाविक रूप से विचारशील प्राणी होता है और इन विचारों को अभिव्यक्त भी करता है। किसी एक व्यक्ति के विचारप्रधान या भावनाप्रधान अभिव्यक्ति से कोई दूसरा व्यक्ति आप्लावित हो जाए और उसे यह अपनी भावना-सी प्रतीत हो तब ऐसी अभिव्यक्ति ’काव्य’ और इसके आस्वादन की प्रक्रिया “काव्यास्वाद” कहलाती है। इस संदर्भ में यहाँ डॉ. देवीशंकर द्विवेदी के “काव्यास्वाद” विषय पर भाषावैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत उनके विचारों का संकलन किया गया है।
काव्यास्वाद दो शब्दों के मेल से बना है- काव्य और आस्वाद। द्विवेदी जी के शब्दों में “भावना का शब्दबद्ध संगीत काव्य है।” इन्होंने परिभाषा में प्रयुक्त प्रत्येक शब्दों की तर्कपूर्ण व्याख्या करते हुए ’अनुभूति’ को प्रधानता दी है। “भावना” एक सार्वभौमिक सत्य है जिसके द्वारा मनुष्य अपने हृदय के भावों को प्रकट करता है अर्थात्‍ यह सूचना मात्र है। “शब्दबद्ध संगीत” संगीत का ऐसा रूप है जो शब्दों से मिलकर बना है। शब्दबद्ध जैसी वस्तु को जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या कोई शब्दमुक्त जैसी संकल्पना भी मौजूद है। द्विवेदी जी ने इन दोनों शब्दों की सुंदरता को इन शब्दों में व्यक्त किया है कि “निःशब्द में ध्वनि करना ही पर्याप्त है।” इस दृष्टि से देखा जाए तो संगीत में ध्वनियों का ही वर्चस्व होता है और ध्वनि-प्रतिकों की यादृच्छिक व्यवस्था से ही भाषा अस्तित्व पाती है। तब यह कल्पना की जा सकती है कि शब्दबद्ध संगीत कितना मधुर होगा। इनका मानना है कि जो musical instrument में है वही musicality है। तात्पर्य यह है कि परिभाषा में प्रयुक्त शब्द आपस में मिलकर ही विशिष्ट अर्थ के प्रकटीकरण में समर्थ हैं। अलग-अलग रहकर ये शब्द अपने मूल अर्थ में ही प्रकट हो पाएँगे।
काव्यास्वाद का दूसरा पक्ष ’आस्वाद’ से संबंधित है। किसी काव्य का आस्वाद बिना अनुभूति के असंभव है। मात्र शब्द का अर्थ जान लेने से काव्य-रस की प्राप्ति नहीं हो सकती। आस्वाद के लिए भाव को जानना और भावना का होना दोनों तत्त्वों की उपस्थिति अनिवार्य है। द्विवेदी जी के अनुसार- “मात्र शब्द का अर्थ जान लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि काव्य को समझने के लिए सहृदयता भी होनी चाहिए।”
काव्य-कृति एक सांप्रेषणिक घटना है जो वक्ता और श्रोता के मध्य घटित होती है। जब वक्ता भावों को अभिव्यक्त करता है और श्रोता अपने अनुभूतियों द्वारा इसका आस्वाद करता है तब कलात्मक प्रकार्य का उद्‍घाटन होता है जिसे रोमन याकोब्सन ने भाषा का “काव्यात्मक प्रकार्य” कहा है। इस प्रकार्य के अंतर्गत कृति से अभिव्यंजित ’संदेश’ तत्त्व का मह्त्तव्पूर्ण स्थान है। यह प्रकार्य ही साहित्य को साहित्येतर विधा से अलग करती है जिसमें वाक्यों के बीच संबंधों की ही स्थापना नहीं होती अपितु संदेश और संदर्भ के अनुरूप अर्थ के उद्‍घाटन से अभिव्यक्त वाक्यों का अतिक्रमण भी होता है। इन अनुभूतियों की गहराई और भावना की चरमसीमा का प्रमाण द्विवेदी जी ने “अभिव्यक्ति” नामक कविता का उदहारण देते हुए प्रस्तुत किया है:
“भीतर, और भीतर
यह दर्द अनदेखा, अनछूआ-सा
आह!
पल भर कि शांति
फिर तड़प,
और आँखों के आगे कुहासा
अब यह उफान
सावधान
दिव्य ज्योति का प्रकाश।
प्रस्तुत पंक्तियों की व्याख्या करते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि यह शब्दों का समूह मात्र नहीं है अपितु एक ऐसी सर्जनात्मक और बोधात्मक इकाई है जिससे भाव, विचार, अनुभवों और अनुभूतियों की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। अतः इस अभिव्यक्ति को समझने के लिए व्यक्ति का सहृदय होना अनिवार्य है। इन्होंने कविता में प्रयुक्त ’कुहासा’ को कविता का काव्यात्मक आवरण कहा है। साथ ही इन्होंने यह भी कहा कि भावना और विचार द्वारा ही काव्य प्रस्तुत होता है और अनुभूति इस काव्य का आस्वाद कराती है।
“राम तुम्हारा चरित्र ही काव्य है,
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।”
मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए द्विवेदी जी ने अनुभूति की पराकाष्ठा बतलाई है और कहा है कि जो व्यक्ति भावना और अनुभूति से ओतप्रोत है अर्थात्‍ जो सहृदय है वो निश्चित रूप से कवि है। काव्य में प्रयुक्त सर्जनात्मक और बोधात्मक इकाई का आस्वाद एक कवि मन ही ले सकता है। इन सर्जनात्मक और बोधात्मक इकाइयों का अध्ययन-विश्लेषन करने के लिए भाषाविज्ञान “शैलीविज्ञान” नामक उपलब्ध कराती है। भाषाविज्ञान भाषा के वाक्य के विश्लेषण तक ही सीमित है जबकि शैलीविज्ञान पूरी कृति को अपनी परिधि में समेटता है। इसलिए किसी विद्वान ने कह है कि – “The words of the poem are found in a dictionary but the poem is not found in a dictionary.”
उपर्युक्त छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों कविताओं का आस्वाद लिया जा सकता है, दोनों में संगीतात्मकता हो सकती है, बशर्ते पाठक सहृदय हो। इसके लिए भाषा की संरचना में जाना आवश्यक नहीं है। अंत में इन्होंने कहा कि “काव्यास्वाद” विषय भाषा और साहित्य दोनों के लिए प्रासंगिक है।
कारण यह कि काव्य-कृति एक ’शाब्दिक कला’ है और इस कला के उद्‍घाटन में प्रयुक्त शब्द आपस में मिलकर जो क्रीड़ा करते हैं उससे व्याकरणिक नियमों का उल्लंघन अर्थात्‍‍ सामान्य भाषा का अतिक्रमण होता है जिससे भाषा साहित्यिक रूप ग्रहण करती है।
द्विवेदी जी के इन विचारों से स्पष्ट है कि भाषाविज्ञान मात्र भाषागत सामग्रियों का विश्लेषण ही नहीं करता बल्कि यह भाषा के माध्यम से व्यक्त हुए विचारों का आस्वाद भी कराता है। इस आधार पर यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि इस व्याख्या से लोगों का यह मंतव्य कि “भाषा एक निर्जीव वस्तु है और भाषावैज्ञानिक इसका अध्ययन करने वाला एक निरर्थक प्राणी” अप्रासंगिक सिद्ध होता है।
(काव्यास्वाद विषय पर डॉ. देवीशंकर द्विवेदी द्वारा दिए गए व्याख्यान के मुख्य अंश)

चिह्न और प्रतीक

चिह्न (sign) एवं प्रतीक (symbol) दोनों सम्प्रेषण की महत्त्वपूर्ण इकाई हैं। इसके सम्बन्ध में यह संकल्पना की जा सकती हैं कि जब दों भाषा-भाषी एक-दूसरे के सम्पर्क में आएँ, तो वहाँ “चिह्न” की आवश्यकता हुई तथा इसी चिह्न की प्रतीति ''प्रतीक'' कहलायी।
''चिह्न'' किसी भी वस्तु का किसी वस्तु के लिए प्रस्तुतीकरण है। दूसरें शब्दों में चिह्न एक ऐसी वस्तु या घटना है जो किसी प्रतीक की तरफ संकेत करती है अर्थात् संकेत एक प्रक्रिया है जो चिह्न तथा प्रतीक के बीच फलीभूत होती हैं । 'चिन्ह' स्वनिम (phoneme) या लिख्रित शब्द(written word), ध्वनियाँ (sound) एवं विशेष संकेत(particular mark)आदि की एक व्यवस्था है।
'प्रतीक' चिह्न का घटित रुप होता है। किसी चिन्ह को देखकर हमारे मस्तिष्क में कुछ प्रत्यय(concept) आते है, यही प्रत्यय प्रतीक कहलाते हैं अर्थात्‍ चिह्न को प्रतीक की सहायता से समझा जाता है। उदाहरणार्थ 'गाय' शब्द एक चिह्न हैं क्योंकि गाय शब्द को पढ़कर या सुनकर हमारे मस्तिष्क में कुछ संकल्पनाएँ आती हैं। वह यह कि यह एक जानवर है जिसके चार पैर, दों कान, दों ऑंख्र, एक पूँछ, होते हैं, आदि। चिह्न के प्रति यह प्रतीति 'प्रतीक' कहलाती है।
फ्रेंच भाषा वैज्ञानिक Ferdinand De Saussure ने व्यवस्थित रुप में प्रतीक की अवधारणा प्रस्तुत की एवं इसका अध्ययन करनेवाली भाषाविज्ञान की शाख्रा को संकेतविज्ञान (Semiotics) कहा। इन्होंने चिह्न के अन्तर्गत प्रतीक की व्यख्या की तथा चिह्न को दो भागों में बाँटा- संकेतक और संकेतित। कोई स्वनिक अवयव (Phonic Components) या स्वनिम (Phonemes) संकेतक कहलाता है, जैसे- 'cat' शब्द में c-a-t ये तीन स्वनिक इकाई हैं या अक्षर(letter) है। यही संकेतक है । 'Cat' शब्द से जो मानसिक प्रतीति होती है वह “Cat'' के लिए संकेतित है। संकेतित एक ''मानसिक प्रत्यय''(Mental concept) है। इसके द्वारा चिह्न को एक सन्दर्भ मिलता है अर्थात्‍ चिह्न किसी संदर्भ के साथ जुड़कर प्रतीक बनता है। परंतु देरिदा का विखंडनवादी सिद्धांत सस्यूर की विचारधारा का खंडन करता है। देरिदा के अनुसार किसी शब्द का अंत्य अर्थ नहीं होता बल्कि शब्द से शब्द तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र होती है। जैसे ’समुद्र’ शब्द समुद्र की भयावहता और गंभीरता को नहीं व्यक्त कर पाता। उसके स्थान पर मात्र एक शब्द ही दे पाता है, अंत्य अर्थ नहीं देता।
अतः कहा जा सकता है कि चिह्न और प्रतीक के मध्य संबंधों की स्थापना गैर-तार्किक सामाजिक समझौते के आधार पर होती है जिसे भाषाविज्ञान में यादृच्छिक या रूढ़ विधान कहा जाता है।
(भाषा विद्यापीठ में होने वाले मासिक संवाद का सारांश)
-प्रस्तुति
अर्चना देवी
एम . फिल., हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी) विभाग

मानव और मशीनी अनुवाद का तुलनात्मक अध्ययन *

अनुवाद चाहे मानव द्वारा किया जाय या फिर मशीन द्वारा दोनों का अंतिम लक्ष्य एक ही होता है- स्रोत भाषा के कथ्य को लक्ष्य भाषा में बदलना। अनुवाद एक बौद्धिक प्रक्रिया का परिणाम है। इस प्रकार की बौद्धिक प्रक्रिया को मशीन से कराना दुष्कर कार्य है। कंप्यूटर द्वारा भाषा और शब्द-संसाधन के क्षेत्र में अनुवाद कार्य बौद्धिक स्तर की एक आवश्यकता के रूप में सामने आया है। कंप्यूटर मानव-मस्तिष्क को पूर्ण रूप से प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है, इसलिए उससे एक भाषिक कथन को दूसरे भाषिक कथन में सार्थकता से अंतरित कराना संभव नहीं हो पाया है।
मानव ने जब कंप्यूटर से अनुवाद कार्य कराने का प्रयास किया तो उसने उसका प्रारंभ एक शुध्द यांत्रिक कार्य के रूप में किया। प्रो. संगल के अनुसार प्रारंभ के दिनों में मशीनी अनुवाद एक द्विभाषिक कोश व शब्दक्रम परिवर्तन तक ही सीमित था। प्रारंभ में व्याकरणिक और बौद्धिक पक्ष को नजरअंदाज कर दिया गया था। परन्तु इससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाए। धीरे-धीरे मशीन के प्रयोगकर्ताओं को यह बात स्पष्ट होने लगी कि कंप्यूटर से अनुवाद कराते समय यह कार्य कंप्यूटर विज्ञान, भाषा विज्ञान और मानव बुद्धि तीनों क्षेत्रों का है।
कृत्रिम बुद्धि मनुष्य के कार्य का बौद्धिक अनुकरण करती है और पूर्व संचित नियमों से परिवर्तित होती है। मस्तिष्क में सूक्ष्म और अव्यक्त रुप में विद्यमान इन नियमों और प्रतिबंधों को एल्गोरिदम या सूत्रों के माध्यम से कम्प्यूटर द्वारा परिचालित करवाना ही कृत्रिम बुध्दि कहलाती है परन्तु अनुवाद के सन्दर्भ में व्याकरणिक लक्षणों और सन्दर्भों से जुड़ी असीम भाषिक अभिव्यक्तियों को नियमबद्ध कर पाना अत्यंत कठिन कार्य हैं। मैने अपने शोध कार्य में चार मशीनी अनुवाद प्रणालियों का अध्ययन और विश्लेषण किया हैं तथा यह जानने की कोशीश की है कि कौन-सी प्रणाली किस हद तक अनुवाद करने में सक्षम है।
भारत में प्रचलित अंग्रेजी हिन्दी मशीन अनुवाद प्रणालियों (और मेरे द्वारा शोध कार्य में प्रयुक्त) का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
मंत्र:- सी.डैक पुणे के एप्लाइड ए. आई. ग्रुप ने 'मंत्र' नामक मशीनी अनुवाद प्रणाली विकसित की है। यह प्रशासनिक, वित्तीय एवं कृषि क्षेत्र के अंग्रेजी पत्रों का हिन्दी अनुवाद करती है। इस प्रणाली में मुख्यत: टैग फॉर्मेलिज्म का उपयोग किया गया है। यह प्रणाली पूर्व संपादन एवं उत्तर संपादन सुविधा से युक्त हैं, इससे प्रयोक्ता को कम प्रयास में अच्छा परिणाम मिलता है।
अनुसारक:- भारतीय भाषाओं के मध्य तथा अंग्रेजी से भारतीय भाषा मे अनुवाद कार्य कराने के लिए यह प्रणाली प्रारंभ में आई. आई. टी. कानपुर द्वारा विकसित की गयी थी। वर्तमान में आई.आई.आई. टी हैदराबाद, हैदराबाद विश्वविद्यालय एवं चिन्मय फाउंडेशन की मदद से यह काम चल रहा है। यह प्रणाली पाणिनी व्याकरण पर आधारित है।
शक्ति:- यह प्रणाली आई.आई.आई टी. हैदराबाद द्वारा अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने के लिए विकसित की गयी है। इस प्रणाली में भाषावैज्ञानिक विश्लेषण के साथ-साथ सांख्यिकी पद्धति और उदाहरण आधारित पद्धति का प्रयोग किया गया है।
गूगल:- यह प्रणाली गूगल डॉट कॉम द्वारा विकसित की गयी है। गूगल ने अब तक इक्कीस भाषा युग्मों के लिए यह सेवा आरंभ की है। इसमे अभी हाल में हिन्दी भाषा को जोड़ा गया है। इस प्रणाली में सांख्यिकीय पद्धति का उपयोग किया गया है ।
मशीनी अनुवाद की समस्याएँ
1. अक्सर मशीनी अनुवाद प्रणालियों द्वारा प्रजनित संयुक्त एवं मिश्र वाक्य हिन्दी की प्रकृति के अनुसार नहीं आ पाते है। बहुत से प्रजनित वाक्यों में अन्विति का अभाव रहता है।
2. अनुवाद प्रणाली द्वारा अनुवाद होने पर अक्सर शब्दों के प्रसंगानुकूल अर्थ न आकर सर्वाधिक प्रचलित अर्थ आ जाता है। कुछ शब्द ऐसे होते है जिनको कोई अर्थ उपलब्ध न होने पर उसे अंग्रेजी में ज्यो का त्यों मशीन ले लेती है।
3. मिश्र वाक्यों के अनुवाद में सर्वाधिक गलतियाँ होती है। प्रणाली यह नहीं समझ पाती कि कौन-सा उपवाक्य प्रधान है और कौन-सा आश्रित है।
4. सबसे बड़ी समस्या अनुवाद के क्षेत्र में मुहावरों और लोकोक्तियों को पहचानने की है।
5. बहुअर्थीय वाक्यों और शब्दों के अनुवाद में भी समस्या रहती है।
मशीन अनुवाद को उन्नत बनाने के सुझाव:-
1. मशीनी अनुवाद के शब्दकोश को और अधिक विस्तृत बनाया जाना चाहिए। इसमें मुहावरों और लोकोक्तियों के लिए अलग से कोश बनाया जाना चाहिए।
2. यदि नियम आधारित पद्धति से मशीनी अनुवाद प्रणाली का निर्माण किया गया है तो इसमें इसके व्याकरण संबंधी नियमों को और अधिक स्पष्ट बनाना चाहिए और भाषा में हो रहे प्रयोगों को अधिक से अधिक नियम के रूप में बनाकर व्याकरण में देना चाहिए यदि सांख्यिकी आधारित अनुवाद प्रणाली हो तो इसे अध्ययन के लिए अधिक से अधिक सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाला कार्पस देना चाहिए।
3. बहुअर्थतता से निपटने के लिए संदर्भ को समझने योग्य प्रणाली विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
4. मशीनी अनुवाद प्रणाली को विभिन्न भाषायी संसाधनों, जैसे- वर्डनेट, फ्रेमनेट, इत्यादि से यथेष्ट मदद लेकर प्रणाली को समुन्नत बनाना चाहिए।
I met the girl who was most beautiful.
मानव अनुवाद: मैं उस लड़की से मिला जो सबसे अधिक सुंदर थी।
अनुसारक: मैं लड़की को मिला जिस सबसे अधिक सुंदर थी।
गूगल: मैं लड़की से मुलाकात की थी जो सबसे सुंदर है।
शक्ति: मैं लड़की जो सुंदर होना
उपर्युक्त अंग्रेजी वाक्य मिश्र प्रकार का है, जिसके कारण सभी मशीनी अनुवाद प्रणालियों द्वारा अनूदित वाक्य में वाक्य की निहित संरचना नहीं आ पायी है, परंतु फिर भी ये वाक्य के अर्थ को संप्रेषित कर देती हैं। तीनों मशीनी अनुवाद प्रणालियों द्वारा भिन्न-भिन्न अनुवाद हुआ है।
प्रस्तुत शोध वर्तमान समय में भारत में चल रहे मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में हो रहे कार्यों के बारे में जानकारी देने के साथ ही मानव और मशीनी अनुवाद का तुलनात्मक अध्ययन करता है और तुलना के फलस्वरूप मशीनी द्वारा की जाने वाली गलतियों का पता चलता है। मशीनी अनुवाद की शुद्धता को बढ़ाने के लिए इन गलतियों का निदान करना बहुत आवश्यक है। इसलिए बाद में शोध में कुछ उपाय सुझाए गए हैं। इन उपायों को अपनाकर कोई भी मशीनी अनुवाद प्रणाली और अधिक शुद्ध परिणाम दे सकेगी।
*शोध-छात्रा अर्चना बलवीर द्वारा एम. फिल. हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी) में प्रस्तुत किए गए शोध-प्रबंध का
सारलेख

भाषा-प्रौद्योगिकीय क्षेत्र के कुछ महत्त्व्पूर्ण लिंक

- प्रस्तुति

शिल्पा गुप्ता

एम. ए. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

वेबसाईट
http://www.aect.org
http://www.isi.edu/natural-/mscompling
http://www.arcticlanguages.com/language-and-technology.html
www.blissit.org
http://www.smioticon.com/seo/c/coglin.html

चार्ल्स. जे. फिल्मोर


-प्रस्तुति
अम्ब्रीश त्रिपाठी
एम. फिल., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग


अमरिकी भाषावैज्ञानिक चार्ल्स. जे. फिल्मोर का जन्म सन्‍ 1929 ई. में हुआ था जो कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बेर्किले में भाषाविज्ञान विभाग में प्रोफेसर थे। इन्होंने सन्‍ 1961 ई. में मिशिगन विश्वविद्यालय से पी-एच.डी की उपाधि ग्रहण की। लगभग दस वर्षों तक ये ओव्यो स्टेट युनिवर्सिटी और एक वर्ष तक स्टैन्फोर्ड विश्वविद्यालय में CABS(Center for Advanced Study in the Behavoiural Science) से जुड़े रहने के उपरांत सन्‍ 1961 ई. में भाषाविज्ञान के बेर्किले विभाग से संलग्न रहे।
फिल्मोर का प्रभावशाली कार्यक्षेत्र वाक्य-विन्यास(Syntax) और कोशीय अर्थविज्ञान(Lexical Semantics) रहा है। इन्होंने अपना शोध मुख्यतः वाक्य-विन्यास और कोशीय अर्थविज्ञान के प्रश्नों पर केन्द्रित किया तथा अर्थ के भाषिक रूप एवं पदार्थ व इसके प्रयोग के बीच के परस्पर संबंधों पर बल दिया। इनका संपूर्ण शोध अर्थविज्ञान के आधारभूत महत्त्व और वाक्य-विन्यास एवं रूपप्रक्रियात्मक दृश्यमान में इसकी अभिप्रेरक भूमिका को प्रदीप्त करने में रहा।
इनका तत्कालीन कार्य पॉल.के. एवं जॉर्ज लैकॉफ के सहयोग में संरचनात्मक व्याकरण के सिद्धांतों को सामान्यीकृत करने में रहा। इस कार्य के द्वारा एक ऐसी शोध परियोजना निर्देशित हो रही थी जिसमें इन सिद्धांतों के द्वारा वाक्य-विन्यासक्रमी, कोशीय विश्लेषण और जापानी पाठ का अनुवाद इंटरनेट पर उपलब्ध हो सके। इस कार्य में इनके साथ अन्य विद्यार्थी जैसे- लॉस माइकल, क्रीस जॉनसन, लेन टालमी और इव स्वीटसर भी सम्मिलित थे।
इनका वर्तमान कार्य कंप्युटेशनल कोशनिर्माण क्षेत्र से संबंधित विभिन्न परियोजनाओं पर है जिसमें एक प्रमुख परियोजना “बंध जाल”(Frame Net) नाम से प्रसिद्ध है जो अंग्रेजी शब्द-संग्रह(Lexicon) का एक विस्तृत ऑनलाईन विवरण है। इस परियोजना में प्रत्येक शब्दों का विवरण उनके द्वारा निर्मित “बंधों” की शब्दावली में दिया गया है। इसके आंकड़ों को अर्थीय और वाक्यीय संबंधों पर टिप्पणी करने हेतु “ब्रिटिश राष्ट्रीय कार्पस(British national corpus)” से इकठ्‍ठा किया गया है तथा इसे कोशीय मदों(Lexical items) और बंधों द्वारा संगठित डाटाबेस में संग्रहित किया गया है।
यह परियोजना Internetional Journal of Lexicography के Issue 16 से प्रभावित है जो संपूर्ण रूप से इस कार्य के लिए समर्पित था। इसके साथ ही यह समानांतर चल रहे परियोजनाओं से भी प्रेरित है, जो अन्य भाषाओं जिसमें स्पेनिश, जर्मन और जापानी सम्मिलित है, में संलग्न है। इस परियोजना से संबंधित विवरण परियोजना के वेब पेज http://www.icsi.berkeley.edu/~framenet पर उपलब्ध है।
अपने जीवनकाल में भाषाविज्ञान और कंप्युटेशनल भाषाविज्ञान पर दिए गए इनके मौलिक विचारों का संग्रह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है :-
“The Case for Case”(1968).
“Frame semantics and the nature of language”(1976)
“Frame semantics”(1982). In Linguistics in the Morning Calm.
“Starting where the dictionaries stop: The challenge for computational lexicography.”(1994). .
Lectures on deixis(1997).
“Towards a frame-based lexicon: the case of risk”
“Corous linguistics” vs “Computer-aided armchair linguistics.” Directions in corpus. Linguistics. 1992
“Humor in academic discourse.” Its What going on Here?
इस प्रकार यह देखा जाता है कि फिल्मोर ने मात्र भाषा के संरचनात्मक पक्ष पर ही बल नहीं दिया अपितु संरचना की व्यवस्था से प्रस्तुत अर्थ पर भी बल दिया जिससे भाषाविज्ञान के अध्ययन में नया अयाम जुड़ा।

भाषा का बदलता स्वरूप

आम्रपाल शेंदरे
एम. ए., कंप्युटेशनल भाषाविज्ञान
विभाग
प्राचीन काल से आज तक जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया वैसे- वैसे भाषा का भी उतरोत्तर विकास होता गया। भाषा के विकास के लिए राजा महाराजाओं ने भी बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। विशिष्ट काल में उस काल के राजा ने उस काल की भाषा को राजाश्रय के द्वारा और भी विकसीत करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैसे आर्य काल में आर्यो ने संस्कृत भाषा को ज्यादा महत्त्व दिया। उन्होनें संस्कृत में ही साहित्य का निर्माण किया। आर्या के द्वारा लिखे गये ’वेद’ संस्कृत में ही पाये जाते है अर्थात्‍ उस काल में संस्कृत को राजाश्रय मिलने की वजह से संस्कृत भाषा ज्यादा लोकप्रिय हुई। उसके बाद बौद्ध काल में ई. पू. 500 में संस्कृत का महत्त्व कम होकर पाली भाषा का महत्त्व बढ़ने लगा क्योंकि बौद्ध काल में भगवान बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए पाली भाषा का उपयोग किया। साथ ही उस समय पाली भाषा को राजाश्रय भी मिला इसी वजह सें उस समय के ग्रंथ पाली भाषा में लिखे गए और पाली भाषा एक उभरती हुई भाषा के रूप में आई। चूंकि धर्म के प्रभाव के साथ भाषा में भी परिवर्तन आता है। उस काल के बाद मुग़ल काल में उर्दू भाषा का प्रचलन आया।
भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद जो ग्रंथ साहित्य मिलता है वो अरबी, फ़ारसी या उर्दू में है। मतलब मुस्लिम साम्राज्य में भारत में पाली भाषा का महत्त्व उर्दू भाषा ने ले ली। उसके बाद 18 वीं सदी में जब भारत पर अग्रेजों का शासन हुआ तब अग्रेंजी भाषा का प्रचार-प्रसार बड़े जोरों से होने लगा। अंग्रेजों ने अपने शासन काल में अंग्रेजी भाषा को महत्त्व दिया। इसलिए उर्दू का महत्त्व कम होकर भारत में अंग्रेजी का महत्व बढने लगा। अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा को प्रमुखता देकर अंग्रेजी भाषा के विकास में प्रचार-प्रसार का कार्य किया। मतलब प्रत्येक समय में भिन्न भाषा का प्रचार-प्रसार समाज में होता रहा। भारत में जिन राजाओं ने राज किया उनहोंने अपने काल के प्रचलित भाषा को महत्त्व दिया। इस प्रकार विभिन्न कालों में भाषा का स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा।

चीनी भाषा तथा लिपि

प्रतिभा पायें
पी-एच.डी. इन्फोर्मेटिक्स एवं लैंग्वेज इंजीनियरिंग विभाग
चीनी भाषा चीन देश की राजभाषा है। चीनी भाषा को चीन में हनयू (Hanyu) कहा जाता है। यह भाषा चिन-तिब्बती भाषा-परिवार की है। चीनी भाषा की लिपि चित्रात्मक है। यह दो तरह की होती हैं-
1∙ परंपरागत चीनी लिपि ( Traditional Script½
2∙ सरलीकृत चीनी लिपि (Simplified Script )
चीनी भाषा संसार में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह चीन एवं पूर्वी एशिया के कुछ देशों में बोली जाती है। संसार की भाषाओं का वर्गीकरण अफ्रीका खंड, यूरेशिया खंड, प्रशांत महासागरीय खंड, अमेरिका खंड नाम के चार विभागो में किया गया है। इनमें से यूरेशिया खंड में चीनी भाषा का आविर्भाव होता है। इस खंड के अंतर्गत निम्नलिखित भाषा-परिवार हैं। सेमेटिक, काकेशस, यूरालअल्ताइक, एकाक्षर, द्रविड़, आग्नेय, भारोपीय और अनिश्चिम। इनमें चीनी भाषा एकाक्षर परिवार की जाती है। स्यामी, तिब्बती, बर्मी, म्याओ, लोलो और मान-ख्मेर समूह की भाषाएँ भी इसी परिवार में शमिल हैं।
चीनी लिपि, जो संसार की प्राचीनतम लिपियों में से है, चित्रलिपि का ही रूपांतर है। इसमें मानव जाति के मस्तिष्क के विकास की अदभूत कहानी मिलती है। मानव ने किस प्रकार मछली, वृक्ष, चन्द्र, सूर्य आदि वस्तुओं को देखकर उनके आधार पर अपने मनोभावों की व्यक्त करने के लिए एक विभिन्न चित्रलिपि ढूंढ़ निकाली है। कितने परिवर्तनों के बाद इसका अंतिम रूप निश्चित हुआ होगा, यह जानने के साधन आज इतिहास में विलीन है। इस लिपि के अध्ययन से इसकी वैज्ञानिकता और व्यवस्था स्पष्ट है। ईसवी सन् के 1700 वर्ष पूर्व से लगातार आज तक उपयोग में आने वाले चीनी शब्दों की आकृतियों में जो क्रमिक विकास हुआ है उसका अध्ययन इस दृष्टि से बहुत रोचक है।

प्रौद्योगिकी और प्रयोजनमूलक हिन्दी

-शेख अन्सार
पी-एच. डी., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग


जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग में लायी जानेवाली भाषा प्रयोजनमूलक होती हे। चूंकि भारत में सबसे अधिक हिन्दी भाषा ही प्रयोग में लायी जाती है, इस कारण वह 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' कहलाती है। हिन्दी जहाँ एक ओर आत्मसुख का उपकरण है वहीं दूसरी ओर सामाजिक आवश्यकता और जीवन की उस व्यवस्था से जुड़ी है जो व्यक्ति के साथ रहती है और उसके निमित्त, जो सेवा माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है।
भाषा सामाजिक व्यवहार की वस्तु है। लेकिन समाज के संदर्भ सदैव एक समान नहीं होते। मानसिक, प्रायोजनिक, पारंपारिक तथा अभिव्यक्ति की दृष्टि से समाज में भी परिवर्तन होते हैं। प्रौद्योगिकी अनुसंधान से संबद्ध संस्था का एक अलग समाज है और वितीय संस्थाओं का दूसरा भिन्न समाज। इसी प्रकार प्रशासन, वाणिज्य, व्यापार, उद्योग का भी अपना भिन्न समाज है। अत: एक वृहत्तर समाज के भीतर भिन्न-भिन्न प्रयोजन होते है जो नए क्षेत्रों की खोज करते हैं। प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रयोग क्षेत्र इतना व्यापक है कि आए दिन हम हिन्दी के नवीन रूपों से परिचित होते हैं। जैसे- साहित्य सर्जन, जीव-विज्ञान, कृषिविज्ञान, विधि, संचार, बैंकिंग एवं बोलचाल के रूपों में।
प्रौद्योगिकी के कारणवश प्रयोजनमूलक हिन्दी के नये क्षेत्रों की भविष्य में बहुत अधिक संभावनाएँ विकसित हो सकती हैं। इसका एक कारण है विश्व बाजार में हिन्दी की बढ़ती माँग और दूसरा प्रौद्योगिकी में हिन्दी भाषा का प्रवेश। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के युग में आज जहाँ विश्व उदारीकरण की ओर बढ़ रहा है और भारत में एक बहुत बड़ा उपभोक्ता बाजार होन के कारण सभी लोग अपना उत्पादन बेचने के लिए हिन्दी भाषा सीख रहे हैं। इसलिए भविष्य में बड़ी संख्या में हिन्दी भाषियों का निर्माण होगा। ये तो हुई भविष्य की बात लेकिन आज प्रौद्योगिकी के कारण प्रयोजनमूलक हिन्दी में जो नये आयाम जुड़े हैं। उनमें रोजगार की संभावनाएँ बहुत बढ़ गई है।
अत: कहा जा सकता है कि इसका क्षेत्र असीमित हैं। विश्व के साथ हमारा संबध सुदृढ़ होता जाएगा, उतने ही ज्ञान क्षेत्रों के द्वार भी खुलते जाऐंगे। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति ने इस बारे में ठीक ही कहा था कि “नये क्षेत्रों की आवश्यकता नये प्रयोजन से निर्मित होती है।“ आज रॉबटोलॉजी, फिजीयोथॅरपी और न्युरोफीजिक्स जैसे शब्द भले ही हमसे परे हों किन्तु विश्व में ये शब्द पहचाने जाते है। इन क्षेत्रों के विषयों को अभिव्यक्त करनेवाली पारिभाषिक शब्दावली हिंदी भाषा में उपलब्ध हो जाएगी तब वे हमारे लिए नए नहीं रहेंगे। तात्पर्य इतना है कि कठिन शब्दावली होने के कारण हम उन शब्दों का प्रयोग करने से बचते हैं। किन्तु बार-बार प्रयोग के कारण ही वे शब्द रुढ होकर चलन में आ जाते है। आज हिंन्दी के शब्द विदेशी भाषाओं में तथा विदेशी भाषा के शब्द हिंन्दी में स्थान पा रहे हैं। इससे तय है कि प्रयोजनमूलक हिंन्दी के नए क्षेत्रों का निर्माण होगा तथा इसमें रोजगार भी बहुत बडे पैमाने पर उपलब्ध होगें और इनसे जुडी अनेक प्रयोगार्थ संभावनाएँ भी बनेगी तथा अंतरराष्ट्रीय धरातल पर अपना विशाल जाल बुनेगी ।

प्रौद्योगिकी और प्रयोजनमूलक हिन्दी

-शेख अन्सार
पी-एच. डी., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग में लायी जानेवाली भाषा प्रयोजनमूलक होती हे। चूंकि भारत में सबसे अधिक हिन्दी भाषा ही प्रयोग में लायी जाती है, इस कारण वह 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' कहलाती है। हिन्दी जहाँ एक ओर आत्मसुख का उपकरण है वहीं दूसरी ओर सामाजिक आवश्यकता और जीवन की उस व्यवस्था से जुड़ी है जो व्यक्ति के साथ रहती है और उसके निमित्त, जो सेवा माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है।
भाषा सामाजिक व्यवहार की वस्तु है। लेकिन समाज के संदर्भ सदैव एक समान नहीं होते। मानसिक, प्रायोजनिक, पारंपारिक तथा अभिव्यक्ति की दृष्टि से समाज में भी परिवर्तन होते हैं। प्रौद्योगिकी अनुसंधान से संबद्ध संस्था का एक अलग समाज है और वितीय संस्थाओं का दूसरा भिन्न समाज। इसी प्रकार प्रशासन, वाणिज्य, व्यापार, उद्योग का भी अपना भिन्न समाज है। अत: एक वृहत्तर समाज के भीतर भिन्न-भिन्न प्रयोजन होते है जो नए क्षेत्रों की खोज करते हैं। प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रयोग क्षेत्र इतना व्यापक है कि आए दिन हम हिन्दी के नवीन रूपों से परिचित होते हैं। जैसे- साहित्य सर्जन, जीव-विज्ञान, कृषिविज्ञान, विधि, संचार, बैंकिंग एवं बोलचाल के रूपों में।
प्रौद्योगिकी के कारणवश प्रयोजनमूलक हिन्दी के नये क्षेत्रों की भविष्य में बहुत अधिक संभावनाएँ विकसित हो सकती हैं। इसका एक कारण है विश्व बाजार में हिन्दी की बढ़ती माँग और दूसरा प्रौद्योगिकी में हिन्दी भाषा का प्रवेश। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के युग में आज जहाँ विश्व उदारीकरण की ओर बढ़ रहा है और भारत में एक बहुत बड़ा उपभोक्ता बाजार होन के कारण सभी लोग अपना उत्पादन बेचने के लिए हिन्दी भाषा सीख रहे हैं। इसलिए भविष्य में बड़ी संख्या में हिन्दी भाषियों का निर्माण होगा। ये तो हुई भविष्य की बात लेकिन आज प्रौद्योगिकी के कारण प्रयोजनमूलक हिन्दी में जो नये आयाम जुड़े हैं। उनमें रोजगार की संभावनाएँ बहुत बढ़ गई है।
अत: कहा जा सकता है कि इसका क्षेत्र असीमित हैं। विश्व के साथ हमारा संबध सुदृढ़ होता जाएगा, उतने ही ज्ञान क्षेत्रों के द्वार भी खुलते जाऐंगे। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति ने इस बारे में ठीक ही कहा था कि “नये क्षेत्रों की आवश्यकता नये प्रयोजन से निर्मित होती है।“ आज रॉबटोलॉजी, फिजीयोथॅरपी और न्युरोफीजिक्स जैसे शब्द भले ही हमसे परे हों किन्तु विश्व में ये शब्द पहचाने जाते है। इन क्षेत्रों के विषयों को अभिव्यक्त करनेवाली पारिभाषिक शब्दावली हिंदी भाषा में उपलब्ध हो जाएगी तब वे हमारे लिए नए नहीं रहेंगे। तात्पर्य इतना है कि कठिन शब्दावली होने के कारण हम उन शब्दों का प्रयोग करने से बचते हैं। किन्तु बार-बार प्रयोग के कारण ही वे शब्द रुढ होकर चलन में आ जाते है। आज हिंन्दी के शब्द विदेशी भाषाओं में तथा विदेशी भाषा के शब्द हिंन्दी में स्थान पा रहे हैं। इससे तय है कि प्रयोजनमूलक हिंन्दी के नए क्षेत्रों का निर्माण होगा तथा इसमें रोजगार भी बहुत बडे पैमाने पर उपलब्ध होगें और इनसे जुडी अनेक प्रयोगार्थ संभावनाएँ भी बनेगी तथा अंतरराष्ट्रीय धरातल पर अपना विशाल जाल बुनेगी ।

राजभाषा हिन्दी

-रंजीत कुमार सिंह
एम. ए., भाषा-प्रौद्योगिकी
विभाग
हिन्दी का राजभाषा स्वरूप आज किसी भी परिचय का मोहताज नहीं हैं और न ही वर्तमान परिप्रेक्ष्य में किसी भी सन्दर्भ से अछूता है। आज हिन्दी अपनी परंपरागत धारा को समसामायिकता के अनुरूप नया मोड़ देने में सफल रही हैं । यही कारण है कि हिन्दी अपने समग्र राजभाषा स्वरूप से उन्नत तकनीक एवं व्यवसायिकता की समर्थ भाषा बन चुकी हैं। इसके सुखद परिणाम हमें भारत सरकार के विभीन्न मंत्रालयो के अधीन विभिन्न विभागों, उपक्रमों एवं बैंको के कामकाज में देखने को मिल रहे हैं। यहाँ तक की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी हिन्दी की व्यावसायिक शक्ति को पहचान चुकी है और यथेष्ट रूप में हिन्दी को अपना रही हैं। जिस तरह गिरमिटिया भारतीय मजदूर फिजी, त्रिनिदाद, मॉरिशस आदि द्विपों में रात के घुप्प-अंधेरे में गन्ने के खेतों में रामचरितमानस की चौपाईयां गाकर न केवल अपने मनोबल में अभिवृध्दि करते थे अपितु अपनी राष्ट्रीय भाषिक धरोहर को भी जीवित रखते थें। वर्तमान में राजभाषा के रूप में 'हिन्दी' को संसद से सड़क तक जोड़ कर देखा जा सकता है। कल तक हिन्दी राष्ट्रीय भावनात्मक एकता व सवतंत्रता आंदोलन की वाणी थी। आज हिन्दी इस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा व संविधान सम्मत राजभाषा के साथ-साथ वाणिज्य-व्यापार, मीडिया, विज्ञापन आदि की सशक्त भाषा है और कल निश्चित रूप से हिन्दी सूचना- प्रौद्योगिकी की सबसे शक्तिशाली भाषा के रूप में उभरेगी और विश्व स्तर पर हिन्दी का ही बोलबाला होगा।
अब प्रश्न यह उठता हे कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र होने की सुखद अनुभूति करने वाला भारत आज भी अपनी राष्ट्रभाषा(हिन्दी) के प्रश्न पर लगभग चुप है। हम उस अंग्रेजी के पूर्णतया मानसिक दास हो गए हैं जो एक दूरदर्शी अंग्रेज लॉड मैकाले ने हमे शिक्षा के रूप में दिया। वर्तमान परिस्थितियों में तो ऐसा लगता है कि यदि आपका बच्चा अंग्रेजी ठीक से बोल या पढ़ नहीं पाता है तो उसे शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ा माना जाएगा। इसी मानसिकता के चलते हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् इंग्लिश मीडियम स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है।
स्वतंत्रता के पश्चात्‍ हम अपनी राष्ट्रभाषा के मामले में गूंगे व बहरे क्यों हो गए? इस प्रश्न पर कभी गंभीरता से विचार कीजिए और यह भी सोचिए की अपनी भाषा को अपनाना स्वाभिमान की बात है या सात समूद्र पार की भाषा को। हमारे सामने टर्की और इजरायल दो छोटे राष्ट्र इसके उदाहरण हैं। इजरायल जब 1948 में आस्तित्व में आया तो दुनिया के विभिन्न भागों में बसे यहुदियों ने स्वदेश वापसी का मन बनाया। उनकी भिन्न-भिन्न भाषाएँ तथा जीवन के अलग-अलग तौर तरीके थे। सबने राष्ट्रभाषा के संबंध में गहन मंत्रणा की तथा उस 'हिब्रू' को अपनाया, जो लुप्त प्राय: हो गई थी। परिश्रमी एवं स्वाभिमानी यहूदियों ने कुछ ही समय में सारी ज्ञान की पुस्तकों को हिब्रू में अनुवाद करके भाषा के क्षेत्र में अपना ध्वज विश्व में फहराया।
परतंत्रता बहुत ही निकृष्ट वस्तु है, जिससे मनुष्य को सोचने, समझने तथा विश्लेषण की क्षमता पंगु हो जाती है। किन्तु इससे भी बुरी स्थिति तब हो जाती है, जब इसके कीटाणु रक्त में मिल जाते हैं। दुर्भाग्य से भारतीयों के रक्त में परतंत्रता के कीटाणु प्रविष्ट हो गए है क्योंकि हमने गुलामी का लम्बा दौर सहा है। कभी क्रूर, अशिक्षित तथा धर्मांध लोगों की जी-हुजूरी की ,तो कभी गोरी चमड़ी वालों को अपना आका माना है। इसका परिणाम यह हुआ कि अब हमें चाहे दुनिया में सबसे भ्रष्ट कहलायें या अपनी भाषा की बेइज्जती हो, सब कुछ बर्दाश्त हो जाता है। आज हमारे देश में भाषाई विवाद को इस तरह बढ़ा दिया है कि हम दासता की प्रतीक अंग्रेजी को अपनाना नहीं चाहते हैं।
भाषाई प्रदूषण से बचने के लिए हमें अपने आचार-विचारों को बदलने के साथ-साथ अपनी प्राचीन शिक्षा व संस्कृति को भी स्मरण करना होगा। हमें इस बात का हमेशा गर्व होना चाहिए कि हम लोग आर्यों की संतान है, जो विश्व की सर्वप्रथम शिक्षित व सभ्य संतति है।
राजभाषा हिन्दी की सांवैधानिक स्थिति
यहाँ राजभाषा का आशय संविधान द्वारा स्वीकृत उस भाषा से है, जिसमें उस देश का राजकीय कार्य-व्यापार होता है। जब हमारे देश में संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय हमारे सम्मुख एक विचारनीय प्रश्न यह था कि किस भाषा को भारत की राजभाषा बनाई जाए? इस प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद 14 सितंबर, 1949 का संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि 'हिन्दी' ही भारत की राजभाषा होगी।
भारतीय संविधान में राजभाषा संबंधी वर्णन अनुच्छेद 343 से 351 तक में किया गया है, जो इस प्रकार है:
1)संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(i) के अनुसार 66 संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।
2)अनुच्छेद 344 राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग एवं समिति के गठन से संबंधित है।
3)अनुच्छेद 345, 346, 347 में प्रादेशिक भाषाओ संबंधी प्रावधानों को रखा गया है।
4) अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय, संसद और विधानमंडलों में प्रस्तुत विधायकों की भाषा के संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
5)अनुच्छेंद 349 में भाषा से संबधित विधियों को अधिनियमित करने की प्रक्रिया पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है।
6) अनुच्छेद 350, में जनसाधारण की शिकायतें दूर करने के लिए आवेदन में प्रयोग की जाने वाली भाषा तथा प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा, सुविधाएं मुहैया कराने तथा भाषाई अल्पसंख्यकों के बारे में दिशा निर्देशों का प्रावधान किया गया है।
7) अनुच्छेद 351, भारतीय संविधान के इस अनुच्छेद में सरकार के उन कर्तव्यों एवं दायित्वों का उल्लेख किया गया है, जिनका पालन राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए उसे करना है।

भाषा का एककालिक एवं कालक्रमिक दृष्टिकोण

-योगेश
एम। ए., भाषा-प्रोद्योगिकी
विभाग
फर्दिनांद द सस्यूर भाषाविज्ञान के आधुनिक जनक के नाम से जाने जाते है। इनकी पुस्तक “The Course in General Linguistics” इनके छात्रो द्वारा उनकी मृत्यु के पश्चात्‍ प्रकाशित की गई।
F. D. Sassure जब भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन करने लगे तो उन्हे पता चला कि भाषाविज्ञान में भाषाविज्ञान का अध्ययन कालक्रमिक (Diachronic) ऐतिहासिक दृश्टिकोण से किया जा रहा है। उन भाषावैज्ञानिकों का कहना था कि भाषाविज्ञान कालक्रमिक अध्ययन है तथा इतिहास का मतलब है भाषा मे होने वाला परिवर्तन, जिससे भाषा का विकास होता है। जबकि F. D. Sassure का कहना है कि भाषाविज्ञान का अध्ययन एककालिक (समकालिक) और कालक्रमिक दृष्टिकोण पर आधारित है। जब तक हम भाषा का एककालिक अध्ययन करते तब तक भाषा का कालक्रमिक अध्ययन नहीं किया जा सकता। हमें भाषाविज्ञान के अध्ययन कि दृष्टि से वर्तमान मे प्रचलित भाषा है उसका समग्र विश्लेषण वस्तुनिष्ठ रूप से करना होगा। भाषा का एककालिक अध्ययन करने के पश्चात्य ही भाषा का कालक्रमिक (Diachronic) अध्ययन प्राप्त किया जा सकता है।
एककालिक का अर्थ है कि वर्तमान मे उस भाषा की व्यवस्था क्या है? उसकी भाषिक संरचना क्या है? इसका अध्ययन एककालिक अध्ययन प्रणाली मे होता है जबकि कालक्रमिक अध्ययन प्रणाली से भाषा के परिवर्तन का अध्ययन वस्तुनिष्ठ रूप से किया जाता है।
इन कारणों से समझा जा सकता है कि भाषा का आधारभूत और व्यावहारिक अध्ययन एककालिक होता है।
भाषा की संरचना पर F. D. Sassure ने लांग (langue) और पारोल (parole) दो प्रकार की संकल्पना प्रस्तुत की। हम उसे भाषा-व्यवस्था (langue) और भाषा-व्यवहार (parole) कहते हैं। किसी भाषा के बोलने वाले समाज के मस्तिष्क मे समान रूप स्थित व्यवस्था भाषा-व्यवस्था है। उदाहरणस्वरूप तमिल, मराठी, हिन्दी समाज।
भाषा-व्यवस्था के आधार पर किसी व्यक्ति का वैयक्तिक व्यवहार भाषा-व्यवहार कहलाता है।
इस अंतर को निम्नलिखित रुप से समझ सकते हैं:

भाषा व्यवस्था भाषा व्यवहार

1 भाषा-व्यवस्था सामाजिक है जबकि भाषा-व्यवहार वैयक्तिक है

2 समाज मे भाषा-व्यवस्था समरूप होती है जबकि भाषा-व्यवहार विषमरूप होता है

3 भाषा-व्यवस्था मानसिक होती है जबकि भाषा-व्यवहार मनोशारीरिक होता है

4 भाषा-व्यवस्था मूर्त है जबकि भाषा-व्यवहार अमूर्त है

5 भाषा-व्यवस्था रूढ़िबद्ध होती है जबकि भाषा-व्यवहार परिवर्तनशील है

6 भाषा-व्यवस्था संस्थागत है जबकि भाषा-व्यवहार व्यक्तिगत है

इस आधार पर कहा जा सकता है कि भाषा-व्यवहार और भाषा-व्यवस्था दोनों एक-दूसरे पर आधारित है। दोनों एक दूसरे के कारक तत्त्व हैं।

शैलीविज्ञान : स्वरूप एवं अध्ययन की दिशाएँ

-मोहिनी.अ.मुरारका
एम. ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
शैलीविज्ञान शब्द दो शब्दो से मिलकर बना है- शैली और विज्ञान जिसका शाब्दिक अर्थ है 'शैली का विज्ञान' अर्थात‌‌‌‌ जिस विज्ञान में शैली का वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित रूप सें अध्ययन किया जाए वह शैलीविज्ञान है। ’शैली’ शब्द अंग्रेजी के Style शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। उसी प्रकार 'शैलीविज्ञान' का अंग्रेजी रुपांतर Stylistics है।
भारत में शैलीविज्ञान का अध्ययन आधुनिक युग की देन है। पाश्चात्य साहित्य में शैलीविज्ञान पर बहुत महत्वपूर्र्ण कार्य हो चुके हैं। साथ ही अनेकानेक ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं, इन ग्रंथो में शैलीविज्ञान के स्वरूप को अत्यंत विस्तारपूर्वक समझाने का प्रयास किया है। भारतीय विद्वान इन्हीं ग्रंथों का अनुगमन कर शैलीविज्ञान के स्वरूप को समझने एवं समझाने का प्रयास कर रहे है। यही कारण है कि कुछ विद्वान शैलीविज्ञान को भाषाविज्ञान से जोड़ते हैं, कुछ साहित्य शास्त्र से तथा कुछ भाषाविज्ञान तथा साहित्यशास्त्र दोनो से, कुछ विद्वान इसे स्वतंत्र विषय के रुप में स्वीकार करते हैं और कुछ इसे प्रायोगिक भाषाविज्ञान का अंग मानते हैं, जैसे भाषाविज्ञान के दो रूप हैं- सैद्धांतिक भाषाविज्ञान एवं प्रायोगिक भाषाविज्ञान। उसी प्रकार शैलीविज्ञान के भी दो रूप हैं- सैद्धांतिक शैलीविज्ञान एवं प्रयोगिक शैलीविज्ञान। सैद्धांतिक शैलीविज्ञान में शैली के सिद्धातों की वैज्ञानिक व्याख्या होती है और प्रयोगिक शैलीविज्ञान में सिद्धांत के आधार पर किसी ग्रंथ या ग्रंथकार की शैली का वर्गीकरण, विवेचन, तथा विश्लेषण किया जाता है।
शैलीविज्ञान भाषाविज्ञान एवं साहित्यशास्त्र दोनों की सहायता लेता हुआ भी दोनों से अलग स्वतंत्र विज्ञान है। शैलीविज्ञान एक ओर भाषाशैली का अध्ययन साहित्यशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर करता है, जिसमें रस, अलंकार, वक्रोक्ति, ध्वनि, रीति, वृत्ति, प्रवृत्ति, शब्द-शक्ति, गुण, दोष, बिंब, प्रतीक आदि आते हैं। दूसरी ओर शैलीविज्ञान के अंतर्गत भाषा-शैली का अध्ययन भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है, जिसमें भाषा की प्रकृति और संरचना के अनुशीलन को महत्त्व दिया जाता है।
शैलीविज्ञान के अध्ययन की मुख्यत: दो दिशाएँ प्रचलित है:
· साहित्यशास्त्र के आधार पर
· भाषाविज्ञान के आधार पर
साहित्यशास्त्र के आधार पर किसी कवि, लेखक, कृति का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है अर्थात रस, अलंकार, वक्रोक्ति, रीति, ध्वनि, गुण, दोष, वृत्ति, प्रवृत्ति, बिंब, छंद आदि के आधार पर देखा जाता है कि लेखक या कवि ने साहित्यशास्त्र के सिद्धांतों का अनुसरण उचित रूप में कहाँ तक किया है एवं कृति या रचना की शैली में साहित्यशास्त्र के नियमों का पालन व्यवस्थित ढंग से कहाँ तक हुआ है। इस प्रकार का अध्ययन साहित्यशास्त्र के क्षेत्र की ही वस्तु मानी जाएगी।
भाषाविज्ञान के आधार पर किसी कवि या लेखक की रचना में प्रयुक्त भाषा की प्रकृति और संरचना के तत्त्वों का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। प्रकृति और संरचना के आधार पर भाषा के पाँच तत्त्व माने जाते हैं- ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य और अर्थ। इसके आधार पर देखा जाता है कि कवि की भाषा में कहाँ ध्वनि-विचलन, ध्वनि-चयन, ध्वनि-समानान्तर का प्रयोग हुआ, कहाँ शब्द-विचलन, शब्द -चयन, शब्द-समानान्तर किया गया। इसी प्रकार रूप-स्तर, वाक्य-स्तर तथा अर्थ-स्तर पर भी अध्ययन किया जाता है। वाक्यों के अंतर्गत मुहावरे एवं लोकोक्तियों के विचलन आदि का अध्ययन भी किया जाता है। इस प्रकार भाषाविज्ञान के आधार पर कृतिकार की भाषा का विश्लेषण अत्यंत गहराई के साथ किया जाता है।

अनुवाद का स्वरुप

धनंजय विलास झालटे
एम। ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग


अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वद्' धातु से हुई है। 'अनुवाद' का शाब्दिक अर्थ है 'पुन:कथन' अर्थात किसी कही गई बात को फिर से कहना। यह भी कहा जा सकता है कि एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में ज्यों को त्यों प्रकट करना ही अनुवाद है। अनुवाद एक साहित्यिक विधा है, पर वह मौलिक साहित्य रचना की कोटि में नहीं आ सकती। एल.एन.शर्मा ’सौमित्र’ उसे सेकण्ड हॅण्ड साहित्य मानते है। इसी कारण अनुवाद को मूल लेखन पर आधारित 'भाषांतर' कह सकते है।
अनुवाद में मूलत: किसी एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना बड़ा ही कठिन कार्य है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना स्वरूप होता है, उसकी अपनी निजी-ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य तथा अर्थमूलक विशेषताएँ होती हैं। कभी-कभी स्रोत भाषा का कथ्य लक्ष्य भाषा में अपेक्षाकृत विस्तृत, कहीं संकुचित और कहीं भिन्नरूपी हो जाता है।
अनुवाद में दो भाषाओं का होना जरूरी है। इन दोनों भाषाओं को अनुवाद विज्ञान में स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की संज्ञा दी गई है। जिस भाषा की सामग्री अनूदित होती है वह स्रोत भाषा कहलाती है और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह लक्ष्य भाषा कहलाती है।
़कैटफर्ड(J.C.Catford) ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है:
''The replacement of textual material from one language by equivalent textual material in another language” अर्थात् अनुवाद एक भाषा(स्रोत भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों के रुप में समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर प्रतिस्थापन है।
अनुवाद मानव की मूलभूत एकता, व्यक्तिचेतना एवं विश्वचेतना के अद्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विश्व संस्कृति के निर्माण कि प्रक्रिया में विचारों के आदान-प्रदान का योगदान रहा है और यह अनुवाद के माध्यम से ही संभव हो सका है।
बीसवीं शताब्दी में अनुवाद को जो महत्त्व प्राप्त हुआ वह उससे पहले नहीं मिला था। इसी कारण इस सदी को ’अनुवाद युग' कहा गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी में ही भिन्न भाषाभाषी समुदायों में संपर्क की स्थिति प्रमुख रुप से उभर कर आयी। इसका मूल कारण आर्थिक और राजनीतिक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और औद्‍योगिक तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर बढ़ते हुए आदान-प्रदान के कारण अनुवाद कार्य की अनिवार्यता और महत्ता को नई दिशा प्राप्त हुई है। इस कारण अनुवाद एक व्यापक तथा एक सीमा तक अनिवार्य और तर्कसंगत स्थिति है।
सामाजिक संदर्भ में अनुवाद व्यापार अनौपचारिक परिस्थितियों में होता है। इसका संदर्भ द्विभाषिकता की स्थिति से है। इसका सामान्य अर्थ है कि हम एक समय में दो भाषाओं का वैकल्पिक रुप से प्रयोग करते है। यानी हम एक भाषा(मातृभाषा) में सोचते है परंतु उसे दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करते है। इस स्थिति में अनुवाद प्रक्रिया का होना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अनौपचारिक रुप में अनुवादक होता है। इस दृष्टि से अनुवाद व्यापार अनौपचारिक स्थिती में होता है। इसके दो भेद है : साधन रूप में अनुवाद और साध्य रूप में अनुवाद। साधन रूप में अनुवाद का प्रयोग भाषा शिक्षण की एक विधि के रूप में किया जाता है। साध्य रूप में अनुवाद अनेक क्षेत्रों में दिखाई देता है। अपने व्यापकतम क्षण में अनुवाद भाषा की शाक्ति में समवर्धन करता है, भाषा तथा विचार के बीच समबन्ध को स्पष्ट करता है, ज्ञान का प्रसार करता है, संस्कृति का संवाहक है।
अनुवाद यांत्रिक प्रक्रिया नही अपितु मैलिकता से स्पर्श करता हुआ कृतित्व है। उसके एक छोर पर मूल लेखक होता है तो दूसरी छोर पर अनुवादक। इन दोनों के बीच है अनुवाद की प्रक्रिया। एक कुशल अनुवादक अपने आप को मूल लेखक के चितंन की भूमि पर प्रतिष्ठित कर अपनी सूझबूझ एवं प्रतिभा के बल पर स्रोत सामग्री को अपने कला और कौशल्य से प्रस्तुत करता है जिससे उसका कृतित्व 'अनुवाद' मैलिक रचना के स्तर तक पहुँच सके।
यह निर्विवाद सत्य हे कि अनुवाद मूल लेखन से कहीं अधिक कठिन कार्य है। मूल लेखन जहाँ अपने विचारों की अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होता हे वहीं अनुवाद एक भाषा के विचारों को दूसरी भाषा में उतारने में अनेक तरह से बंधा होता है। उन दोनों भाषाओं की सूक्ष्मतम जानकारी के अतिरिक्त विषय के तह तक पहुंचने की क्षमता जथा अभिव्यकित की पूर्ण कुशलता अच्छे अनुवादक के लिए अपेक्षित है।

अनुवाद का स्वरुप

धनंजय विलास झालटे
एम। ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वद्' धातु से हुई है। 'अनुवाद' का शाब्दिक अर्थ है 'पुन:कथन' अर्थात किसी कही गई बात को फिर से कहना। यह भी कहा जा सकता है कि एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में ज्यों को त्यों प्रकट करना ही अनुवाद है। अनुवाद एक साहित्यिक विधा है, पर वह मौलिक साहित्य रचना की कोटि में नहीं आ सकती। एल.एन.शर्मा ’सौमित्र’ उसे सेकण्ड हॅण्ड साहित्य मानते है। इसी कारण अनुवाद को मूल लेखन पर आधारित 'भाषांतर' कह सकते है।
अनुवाद में मूलत: किसी एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना बड़ा ही कठिन कार्य है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना स्वरूप होता है, उसकी अपनी निजी-ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य तथा अर्थमूलक विशेषताएँ होती हैं। कभी-कभी स्रोत भाषा का कथ्य लक्ष्य भाषा में अपेक्षाकृत विस्तृत, कहीं संकुचित और कहीं भिन्नरूपी हो जाता है।
अनुवाद में दो भाषाओं का होना जरूरी है। इन दोनों भाषाओं को अनुवाद विज्ञान में स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की संज्ञा दी गई है। जिस भाषा की सामग्री अनूदित होती है वह स्रोत भाषा कहलाती है और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह लक्ष्य भाषा कहलाती है।
़कैटफर्ड(J.C.Catford) ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है:
''The replacement of textual material from one language by equivalent textual material in another language” अर्थात् अनुवाद एक भाषा(स्रोत भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों के रुप में समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर प्रतिस्थापन है।
अनुवाद मानव की मूलभूत एकता, व्यक्तिचेतना एवं विश्वचेतना के अद्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विश्व संस्कृति के निर्माण कि प्रक्रिया में विचारों के आदान-प्रदान का योगदान रहा है और यह अनुवाद के माध्यम से ही संभव हो सका है।
बीसवीं शताब्दी में अनुवाद को जो महत्त्व प्राप्त हुआ वह उससे पहले नहीं मिला था। इसी कारण इस सदी को ’अनुवाद युग' कहा गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी में ही भिन्न भाषाभाषी समुदायों में संपर्क की स्थिति प्रमुख रुप से उभर कर आयी। इसका मूल कारण आर्थिक और राजनीतिक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और औद्‍योगिक तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर बढ़ते हुए आदान-प्रदान के कारण अनुवाद कार्य की अनिवार्यता और महत्ता को नई दिशा प्राप्त हुई है। इस कारण अनुवाद एक व्यापक तथा एक सीमा तक अनिवार्य और तर्कसंगत स्थिति है।
सामाजिक संदर्भ में अनुवाद व्यापार अनौपचारिक परिस्थितियों में होता है। इसका संदर्भ द्विभाषिकता की स्थिति से है। इसका सामान्य अर्थ है कि हम एक समय में दो भाषाओं का वैकल्पिक रुप से प्रयोग करते है। यानी हम एक भाषा(मातृभाषा) में सोचते है परंतु उसे दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करते है। इस स्थिति में अनुवाद प्रक्रिया का होना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अनौपचारिक रुप में अनुवादक होता है। इस दृष्टि से अनुवाद व्यापार अनौपचारिक स्थिती में होता है। इसके दो भेद है : साधन रूप में अनुवाद और साध्य रूप में अनुवाद। साधन रूप में अनुवाद का प्रयोग भाषा शिक्षण की एक विधि के रूप में किया जाता है। साध्य रूप में अनुवाद अनेक क्षेत्रों में दिखाई देता है। अपने व्यापकतम क्षण में अनुवाद भाषा की शाक्ति में समवर्धन करता है, भाषा तथा विचार के बीच समबन्ध को स्पष्ट करता है, ज्ञान का प्रसार करता है, संस्कृति का संवाहक है।
अनुवाद यांत्रिक प्रक्रिया नही अपितु मैलिकता से स्पर्श करता हुआ कृतित्व है। उसके एक छोर पर मूल लेखक होता है तो दूसरी छोर पर अनुवादक। इन दोनों के बीच है अनुवाद की प्रक्रिया। एक कुशल अनुवादक अपने आप को मूल लेखक के चितंन की भूमि पर प्रतिष्ठित कर अपनी सूझबूझ एवं प्रतिभा के बल पर स्रोत सामग्री को अपने कला और कौशल्य से प्रस्तुत करता है जिससे उसका कृतित्व 'अनुवाद' मैलिक रचना के स्तर तक पहुँच सके।
यह निर्विवाद सत्य हे कि अनुवाद मूल लेखन से कहीं अधिक कठिन कार्य है। मूल लेखन जहाँ अपने विचारों की अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होता हे वहीं अनुवाद एक भाषा के विचारों को दूसरी भाषा में उतारने में अनेक तरह से बंधा होता है। उन दोनों भाषाओं की सूक्ष्मतम जानकारी के अतिरिक्त विषय के तह तक पहुंचने की क्षमता जथा अभिव्यकित की पूर्ण कुशलता अच्छे अनुवादक के लिए अपेक्षित है।

भाषा की सृजनात्मक शक्ति और निराला

-अविचल गौतम
एम। फिल., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
भावानुभूतियों को व्यक्त करने के लिए भाषा ही सशक्त माध्यम होती है। भाषा शब्दों की संख्या से धनी नहीं होती, धनी होती है उसकी भाव-व्यंजकता से। अत: भावों की अभिव्यंजना के लिए भाषा को समर्थ बनाना होता है।
शब्द-समूह रुप-विन्यास का मूलधन है। शब्दों की सामग्री को नाना रुपों में सजाकर कविता में रुप-संबंधी भंगिमा लाई जाती है। जिन शब्दों के सहारे एक कवि एकदम सीधी-सादी सपाट कविता लिखता है, उन्हीं को नवीन क्रम से सजाकर भावुक कवि मार्मिक सौंदर्य पैदा कर देते है।
भाषा आदिम मनुष्यों की पहचान रही है। भाषा की ही वजह से मनुष्य जाति अन्य जीवों से भिन्न है। भाषा में इतनी सृजनात्मक शक्ति होती है कि अकथ अनुभूतियाँ भी शब्दों के माध्यम से साकार हो उठती है। हर भाषा का अपना साहित्य होता है और क्षेत्र भी। हिंदी भाषा कई मायनो में अच्छी मानी जाती है। चाहे वह ध्वनि-पक्ष हो या अर्थ तत्व।
निराला कुशल शब्द-शिल्पी हैं। उनकी भाषा विषय के अनुरुप ढल जाती है। भावों के अनुरुप ही कवि ने भाषा की सर्जना की है। कहीं तत्सम् शब्दावली का प्रयोग है और कहीं देशज शब्दों का विधान। काव्य भाषा के अनुपम स्वर विस्तार एवं नाद योजना की संभावनाएं कवि पहली बार उद्धाटित करता है। मुक्तछंद में रचित 'परिमल' की सभी कविताएँ निराला की नई विकसनशील और जागरुक रचना-प्रक्रिया का बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत करती है। संस्कृतनिष्ठ शब्दों का भरपूर और सर्जनात्मक उपयोग करते हुए कवि ने 'गीतिका' में गीतों का गंभीर चिंतन, सांस्कृतिक संदर्भों, विविध प्रणय स्थितियों को अनुस्यूत करने की सफल चेष्टा की है।
'राम की शक्ति-पूजा' कविता में लम्बे सुगठित रचना-विधान में खड़ीबोली पर आधारित काव्य भाषा की अभूतपूर्व व्यंजना क्षमता उद्‍घाटित हुई है। भाषा के माध्यम से कवि भावों के औदात्य को साकार किया है-
''विच्छुरित बन्हि-राजीव नयन-हत लक्ष्य-वाण,
लेहित-लोचन-रावण-मदमोचन-महीयान
राघव-लाघव-रावण-वारण-गत युग्म प्रहर।''
अपने रचना-विधान में निराला ने भाषा के माध्यम से ही अपनी संवेदना को वाणी दी।
'सरोज स्मृति' जैसे शोकगीत का दोहरा रचना-विधान तत्सम् और तद्‍भव पर आधारित भाषिक-संरचना स्पृहणीय है।
'तुलसीदास' कविता में छंद की मौलिक प्रकृति और उसका कसाव शब्दो के जटिल रुप, सूक्ष्म गंभीर कल्पनाएँ इसी काव्य को सामान्य की चिंता में विशिष्ट बना देती हैं।
निराला काव्य की भाषा का एक महत्त्वपूर्ण रुप है उसका पैनापन। व्यंग्य की सटीक चोट करते हुए निराला की भाषा का रुप भी तीखा हो जाता है, जैसे-
“अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत गर पाई खुशबू रंगो आब।”
''बेला'' मूलत: निराला का भाषिक-प्रयोग है, जिसमें कवि ने उर्दू गजलों की रवानी और लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें हिंन्दी गीतों में ढालने की साहसिक कोशिश की है।
वस्तुत: निराला किसी भाषा रुप में बंधते नहीं, बल्कि भावों के अनुकूल भाषा की सर्जना की है। निराला की काव्य-भाषा, शब्दावली, वाक्य-विन्यास, लय, अलंकार, छंद प्राय: हर स्तर पर यांत्रिकता से बचने की सफल कोशिश करती है।
अत: भाषा की सृजनात्मक शक्ति भावों की विभिन्न अवस्थाओं को आत्मसात करती है। भाषा में अनेक रंग हैं। यह शिल्पकार की निपुणता पर निर्भर है कि वह भाषा में कौन-सा रंग भरता है।

10 अक्तूबर 2009

अनुवाद का सांस्कृतिक पक्ष

कल्याणी
पी-एच। डी., अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ
प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है, जिसमें उस समाज की सारी विशेषताएँ निहित होती हैं। इन संस्कृतियों को अभिव्यक्त करने का भाषा एक सशक्त माध्यम है। संस्कृति में धर्म जाति, रीति-रिवाज, वेशभूषा, खानपान, रिश्ते-नाते आदि आते हैं। अनुवाद मूलभाषा पाठ का सत्य लक्ष्य भाषा में व्यक्त करने में तभी कामयाब हो सकता है जब अनुवादक मूलभाषा पाठ की संस्कृति को लक्ष्य भाषा की संस्कृति से सहसंबंध स्थापित कर सके। अनुवाद को दुबारा उत्पन्न करने की प्रक्रिया द्विसांस्कृतिक कहलाती है। अंतत: मात्र बाह्य और आंतरिक शैलीगत सहसंबंध से कई बार हास्यास्पद भाषा उत्पन्न हो जाती है। यह सोचकर की पाठक को उसमें रुचि नहीं होगी, अनुवादक को ध्यान रखना होता है कि मूलभाषा पाठ का चयन या आस्वीकार करने की ज्यादा छूट ना हो। सबसे ज्यादा जरुरी है कि अनुवादक अच्छी तरह से सांस्कृतिक संदर्भ की संपूर्णता को समझे जिससे अनुवाद सकारात्मक हो। आखिरकार अनुवाद का मुख्य लक्ष्य है कि पाठक को अन्य भाषा के साहित्य, संस्कृति और जीवन के प्रति संवेदनशील बनाना और उसे एक नयी जीवन-शैली से अवगत कराना ।
अनुवाद के माध्यम से संस्कृति को प्रेषित करने का काम कठिन है। इससे पहले की अनुवादक दो संस्कृतियों के बीच पुल बनाए, उसके लिए अनिवार्य है कि वह उन दोनों संस्कृतियो को पूरी तरह समझ सके, जैसे मराठी में ''लावणी' शब्द मराठी संस्कृति से जुडा है जिसका अनुवाद हिन्दी के मुजरा के समकक्ष किया जाता है। पर इन दोनों शब्दों का भिन्न अर्थ है। इसी प्रकार ''नववारी पातड़” शब्द का किसी संस्कृति में अनुवाद नहीं कर सकते। विवाह जैसा संस्कार तो सारी दुनिया में अलग-अलग पद्धतियों से किया जाता है। मराठी विवाह संस्कार में वर-वधू पर ''अक्षत'' बरसाते है। इसका अन्य भाषा में अनुवाद संभव नहीं है। खानपान से संबंधित देखा जाए तो मराठी व्यंजन 'पुरनपोली' का अनुवाद भी संभव नहीं है। इसलिए लिप्यंतरण का सहारा लेकर उस शब्द की गरिमा को बरकरार रखा जाता सकता है अथवा नीचे पादटिप्पणी में उसका अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया जा सकता है। संकेतार्थ शब्दावली की बात करें तो प्रत्येक भाषा के अपने संकेत होते हैं। बहुत बार कुछ शुभ या अशुभ बातों को संकेतों के सहारे अभिव्यक्त किया जाता है जैसे बिल्ली का रास्ता काटना या फिर घर की छत पर कौआ बोलना, इन सभी संकेतो के सरल अनुवाद नहीं हो सकता। ये विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं और इनके लिए उतनी ही विशिष्ट अभिव्यक्ति मिल पाना कठिन है।
जॉर्ज स्पाईनर कहते हैं कि ''अनुवाद क्रिया तो एक जीवंत खोज है, अतीत और वर्तमान दो संस्कृतियों के बीच निरंतर बहती ऊर्जा की धारा है।'' अतः एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में अनुवाद की समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए मराठी से हिंदी में अनुवाद का ब्योरा दिया गया है।