03 अगस्त 2009

थिसॉरस

गोबिन्द प्रसाद
भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
थिसॉरस एक तरह का शब्दकोश है। यह ग्रीक शब्द ‍“थिसरस” से बना है जिसका अर्थ ’कोश’ होता है। यह आम प्रचलित शब्दकोश से काफी भिन्न होता है तथा भिन्न पद्धति पर निर्मित होता है। अगर शब्दकोश ’शब्द’ को परिभाषा देता है तो थिसॉरस ’परिभाषा’ (संकल्पना) को शब्द देता है। यह अव्यक्त को व्यक्त, अमूर्त को मूर्त और निराकार को साकार करता है क्योंकि भावों अथवा संप्रत्ययों और विचारों के साकार रूप शब्द ही होते हैं। शब्दकोश की अपेक्षा थिसॉरस में शब्दों का नहीं, शब्द-समूहों का संकलन किया जाता है। यह संकलन आकारादिक्रम से न कर के भावक्रम से किया जाता है। संसार के जितने पदार्थ हैं, जितने विचार हैं, जितनी मान्यताएँ, धर्म अथवा देवी-देवता हैं, संदेह, अन्वेषण, कालक्रम अथवा भविष्य की कल्पना है, सबका वर्गीकरण किया जाता है। फिर उन सबको एक के बाद एक इस तरह रखा जाता है कि एक भाव से दूसरे भाव तक की यात्रा सहज और स्वाभाविक रहे। हर भाव का अपना एक शब्द समूह होता है। इसमें भाव विशेष की अभिव्यक्ति देने वाले अधिकाधिक शब्दों को संकलित किया जाता है। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया-विशेषण आदि शब्द-समूह पर्यायवाची शब्दों के समूह नहीं होते अपितु एक जैसी वस्तुओं के शब्द-समूह होते हैं।
पहला आधुनिक थिसॉरस 1852 ई. में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ जिसका नाम है- ’रोजेत थिसॉरस’ (Roget’s thesauras)। इसके रचयिता पीटर मार्क रोजेत हैं। डॉ. रोजेत प्रसिद्ध वैज्ञानिक और रॉयल सोसायटी के महासचिव थे। रोज परिवर्तित होती आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी विचारों को शब्द प्रदान करने में थिसॉरस बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं। अंग्रेजी भाषा में आज अनेक थिसॉरस मौजूद हैं जो संसार भर में अंग्रेजी भाषा में सही और बेहतर प्रयोग में सहायक हो रहें हैं।
यदि संस्कृत भाषा की बात की जाए तो इसमें अमरसिंह द्वारा रचित ’अमरकोश’ को आधुनिक थिसॉरस की श्रेणी में रखा जाता है। अमरकोश को नामलिंगानुशासन और तीन काण्डों में होने के कारण ’त्रिकाण्ड’ भी कहते हैं। 10,000 पारिभाषिक शब्दों का कोश होने के कारण यह संस्कृत कोशों में सर्वाधिक प्रचलित एवं मह्त्त्वपूर्ण है।
हिंदी में थिसॉरस अब तक अरविंद कुमार द्वारा संपादित समांतर कोश में प्रकाशित हुआ है। यह हिंदी भाषा का पहला थिसॉरस माना जाता है। हालॉंकि अब तक हिंदी में कई थिसॉरस प्रकाशित हो जाने चाहिए क्योंकि पिछले एक दशक से हिंदी को जिस प्रकार तकनीकी पक्ष से जोड़ा जा रहा है, उस हिसाब से देखा जाए तो हिंदी में अब तक कई थिसॉरस होने चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। हिंदी का यह दुर्भाग्य तो नहीं लेकिन रूचि का अभाव अवश्य माना जा सकता है।

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